Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ-कोकवार्तिके
कपर आचार्य कहते हैं कि वह नैयायिकों द्वारा माना गया विक्षेप नामक निग्रहस्थान समीचीन नहीं है । इस बातको स्वयं ग्रन्थकार वार्त्तिकोंद्वास अनुवाद कर स्पष्ट कहे देते हैं ।
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सभां प्राप्तस्य तस्य स्यात्कार्यव्यासंगतः कथा । विच्छेदस्तस्य निर्दिष्टो विक्षेपो नाम निग्रहः ॥ २६४ ॥ सोपि नाप्रतिभातोस्ति भिन्नः कश्चन पूर्ववत् । तदेवं भेदतः सूत्रं नाक्षपादस्य कीर्तिकृत् ॥ २६५ ॥
शास्त्रार्थ करनेके लिये सभाको प्राप्त हो चुके वादीका कार्यमें व्याक्षेप हो जानेसे जो कथाका विच्छेद कर देना है, वह उसका विक्षेप नामक निग्रहस्थान हुआ कह दिया जायगा । यहां आचार्य महाराज विचार करते हैं कि वह विक्षेप भी पूर्व कहे गये मतानुज्ञा, निरनुयोज्यानुयोग, आदि निग्रहस्थानोंके समान अप्रतिमा या अज्ञान निग्रहस्थान से कोई भिन्न निग्रहस्थान नहीं है । तिस कारण इस प्रकार भिन्न भिन्न रूपसे निग्रहस्थानों के लक्षण सूत्र बनाना अक्षपाद ( गौतम ) की कीर्तिको करनेवाला नहीं है । गम्भीर और स्वल्प शब्दों में तत्वोंको प्रतिपादन करनेवाले सूत्रोंका निर्णय करनेसे दार्शनिक उपज्ञ विद्वान्का यश बढता है । निस्तत्त्व वाग् आडम्बर से यशः कीर्तन नहीं हो पाता है ।
यदप्युक्तं सिद्धांतमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसंगोपसिद्धान्तः प्रतिज्ञातार्थव्यतिरेकेणाभ्युपेतार्थपरित्यागान्निग्रहस्थानमिति, तदपि विचारयति ।
स्वकीय सिद्धान्तको स्वीकार कर प्रतिज्ञातार्थ के विपर्यय रूप अनियमसे कथाका प्रसंग उठाना अपसिद्धान्त निग्रहस्थान है । यह गौतम सूत्रमें लिखा है प्रतिज्ञा किये जा चुके अर्थकी विभिन्नता करके स्वीकृत किये गये अर्थका परित्याग हो जाने ( कर देने ) से यह निग्रहस्थान माना गया है । स्वीकृत आगमके विरुद्ध अर्थका साधन करने लग जाना अपसिद्धान्त है । उस निग्रहस्थानका भी आचार्य महाराज विचार चढाते हैं ।
कथा
स्वयं नियत सिद्धांतो नियमेन विना यदा । प्रसंजयेत्तस्यापसिद्धांत्तस्तथोदितः ॥ २६६ ॥ सोप्ययुक्तः स्वपक्षस्यासाधनेनेन तत्त्वतः । असाधनांगवचनाद्दोषोद्भावनमात्रवत् ॥ २६७ ॥
जिस समय वादी अपने सिद्धान्तको स्वयं नियत कर चुका है, पुनः उस नियतिका लक्ष्य
रक्खे विना यदि वाद कथाका प्रसंग लावेगा तिस प्रकार होनेपर उसके अपसिद्धान्त नामका निग्रह