Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दूसरे वादीके द्वारा कहे गये जिस जिस साध्य, हेतु, आदिमें प्रतिवादी द्वारा दूषण उठाया जाय उसका उच्चारण करना ही प्रतिवादीका कर्त्तव्य अमीष्ट करना चाहिये । प्रतिवादी यदि अन्य इधर घरकी बातोंका उच्चारण करता है, तो उसका " निरर्थक " निग्रहस्थान हो जायगा ।
उक्तं दूषयतावश्यं दर्शनीयोत्र गोचरः ।
अन्यथा दूषणावृत्तेः सर्वोच्चारस्तु नेत्यपि ॥ २३७ ॥ कस्यचिद्वचनं नेष्टनिग्रहस्थानसाधनं ।
तस्याप्रतिभयैवोक्तैरुत्तराप्रतिपत्तितः ॥ २३८ ॥
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बौद्ध गुरु धर्मकीर्तिका मन्तव्य है कि उपर्युक्त अननुभाषण दूषणको उठा रहे विद्वान् करके यहां दूषणका आधार साध्य, हेतु, आदि विषय अवश्य दिखलाना चाहिये । अन्य प्रकारोंसे दूषणोंकी प्रवृत्ति नहीं हो पाती है ह । वादीले प्रतिपादित सर्वका उच्चारण तो नहीं किया जाय। आचार्य कहते हैं कि यह भी किसी धर्मकीर्तिका कथन अपने अभीष्ट निग्रहस्थानका साधक नहीं हो सकता है । क्योंकि प्रतिवादीको स्वकीय भाषणों करके उत्तरकी प्रतिपत्ति नहीं होनेके कारण अप्रतिमा नामक निग्रहस्थान करके ही उस प्रतिवादीका निग्रह कर दिया जाता है ।
तदेतद्धर्मकी चैर्मतमयुक्तमित्याह ।
आचार्य कहते हैं, सो यह धर्मकीर्तिका मन्तव्य तो अयुक्त है। इस बातको ग्रन्थकार स्पष्टरूपसे प्रतिपादन करते हैं ।
प्रत्युच्चारासमर्थत्वं कथ्यतेऽननुभाषणं । तस्मिन्नुच्चारितेप्यन्यपक्षविक्षिप्त्यवेदनम् ॥ २३९ ॥ ख्याप्यतेऽप्रतिभान्यस्येत्येतयोर्ने कतास्थितिः । साक्षात्संलक्ष्यते लोकैः कीर्तेरन्यत्र दुर्गतेः ॥ २४० ॥
प्रतिवादीका प्रत्युत्तरके उच्चारण करनेमें समर्थ नहीं होना तो अननुभाषण निग्रहस्थान कहा
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जाता है । और उस प्रत्युत्तरके उच्चारण किये जानेपर भी पर पक्षके द्वारा किये गये विक्षेप ( प्रतिबेध) का ज्ञान नहीं होना तो अन्य प्रतिवादीका अप्रतिभा निग्रहस्थान बखाना जाता है । इस कारण इन अननुभाषण और अप्रतिभामें एकपनेकी व्यवस्था नहीं है, भेद है । उत्तरकी प्रतिपति होनेपर भी सभा क्षोभ आदिसे प्रतिवादीका अननुभाषण सम्भव जाता है । और उत्तरको नहीं समझानेपर अप्रतिमा नामक निग्रहस्थान होता है । कचित् सांकर्य हो जाने मात्र दोनोंका अभेद