Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणि
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और भी जो नैयायिकोंने सत्रहवें निग्रहस्थानका लक्षण गौतमसूत्रमें यों कहा था कि निप्रहको प्राप्त हो चुके भी पुरुषका पुनः निग्रहस्थान नहीं उठाया जाना यह पर्यनुयोज्योपेक्षण निप्रहस्थान है। अर्थात्-करुणाका फल हिंसा है, (नेकीका दर्जा बदी है। ) कोई वादी यदि निगृहीत हो चुके प्रतिवादीके ऊपर कृपाकर निग्रहस्थान नहीं उठाता है, तो ऐसी दशामें वह वादी अपने आप अपने पावोमें कुल्हाडी मार रहा है। क्योंकि जीतनेवाका ही निकट भविष्यमें पर्यनुयोज्योपेक्षण द्वारा निग्रहस्थान होनेवाला है । इस निग्रहस्थानका तात्पर्य पर्यनुयोज्यकी उपेक्षा कर देना है। सुवक्ताको निग्रहकी प्राप्तिसे सन्मुख बैठा हुआ पुरुष प्रेरणा करने योग्य था । किन्तु सुवक्ता उसकी उपेक्षा कर गया। सुवक्ताके लिये परिपाकमें यही आपत्तिका बीज बन बैठा है। नीतिकारका कहना ठीक है कि " व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः । प्रविश्य हि नंति शठास्तथा विधानसंवृताङ्गान् निशिता इवेषवः " । इस प्रकार नैयायिकोंने यह पर्यनुयोज्येपेक्षण निग्रहस्थान माना है । आचार्य कहते हैं कि वह निग्रहस्थान भी बहुत अच्छा नहीं है । इस बातको प्रन्थकार वार्तिकद्वारा स्पष्ट कहते हैं।
यः पुनर्निग्रहप्राप्तेप्यनिग्रह उपेयते । कस्यचित्पर्यनुयोज्योपेक्षणं तदपि कृतम् ॥ २४५ ॥
जो नैयायिकोंने निग्रहस्थानको प्राप्त हो रहेमें भी पुनः निग्रह नहीं उठाना किसीका पर्यनुयोज्योपेक्षण नामक निग्रहस्थान स्वीकार किया है, वह भी उक्त विचारोंकरके ही न्यारा निग्रहस्थान नहीं किया जा सकता है । अज्ञान या अप्रतिमामें ही उसका अन्तर्भाव हो जावेगा । अधिक व्याख्यान करनेसे कोई विशेष लाभ नहीं है ।
स्वयं प्रतिभया हि चेत्तदंतर्भावनिर्णयः । सभ्यरुद्भावनीयत्वात्तस्य भेदो महानहो ॥ २४६ ॥ वादेप्युद्भावयनैतन्न हि केनापि धार्यते । स्वं कौपीनं न कोपीह विवृणोतीति चाकुलम् ॥ २४७ ॥ उत्तराप्रतिपत्तिं हि परस्योद्भावयन्स्वयं । साधनस्य सदोषत्वमाविर्भावयति ध्रुवम् ॥ २४८॥ संभवत्युत्तरं यत्र तत्र तस्यानुदीरणम् । युक्तं निग्रहणं नान्यथेति न्यायविदां मतम् ॥ २४९ ॥