Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
अर्थात् लाघव के लोभ में पडकर शद्वोंका संकोच करनेसे भारी अर्थकी हानि उठानी पडती है । सभा मन्दबुद्धि, मध्यबुद्धि, तीव्रक्षयोपशम, प्रकृष्ट प्रतिभा, आदिको धारनेवाले सभी प्रकार के जीव हैं । समझाने समझने में आकुलता नहीं हो, इस ढंगसे श्रेष्ठ वक्ताको व्याख्यान करना चाहिये । किसी प्रकृष्ट बुद्धिवाले प्रतिपाद्य की अपेक्षा वक्ताका पुनर्वचन इतना भयावह नहीं है, जितना कि बहुत से मन्दबुद्धिवालोंका अज्ञानि बना रहना हानिकर है। मैंने ( माणिकचन्द ) भाषा टीका लिखते समय अनेक स्थलोंपर दो दो बार तीन तीन बार कठिन प्रमेय को समझानेका प्रयास किया है क्योंकि प्रकृष्टबुद्धिशाली विद्वानोंके लिये तो मूढग्रन्थ ही उपादेय है । हो, जो साधारण बुद्धिवाके पुरुष श्री विद्यानन्द स्वामीकी पंक्तियों को समझने के लिये असमर्थ हैं, या अर्द्धसमर्थ हैं, उनके लिये देश भाषा लिखी गयी है । यानी, अर्थात्, भावार्थ, जैसे, आदि प्रतीकों करके अनेक स्थलोंपर पुनरुक्ति हो गई है, किन्तु वे सब परिभाषण मन्दक्षयोपशमवाले शिष्योंको समझाने के लिये हैं । उस पुनरुक्त कथन द्वारा विशिष्ट क्षयोपशमको उठा कर विद्वान् भी सम्भवतः कुछ लाभ उठा सके, जैसे कि कठिन श्लोक या पंक्तिको कई बार उसी शद्व आनुपूर्वीसे बांचनेपर प्रतिभाशाली विचक्षण धीमान् चमत्कारक अर्थको निकाल लेते हैं । दो तीन बार पानी, पानी, पानी, कह देने से श्रोता अतिशीघ्र जलको के आता है। कई बार सांप, सांप, कह देनेसे पथिक सतर्क हो कर सर्पले अपनी झटिति संरक्षा कर लेता है । मरा मरा मरा, पिचा पिचा पिचा, अधिक पीडा है, बहुत पीडा है, पकडो पकडो पकडो इत्यादिक शब्द भी अनेक अवसरोंपर विशेष प्रयोजनको साध देते हैं। अतः कचित् पुनरुक्त भी दोष नहीं है । महर्षियोंके व्यर्थ दीख रहे वचन तो म जाने कितना अपरिमित अर्थ निकाल कर धर देते हैं । " गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः " सुखदुःखजीवितमरणोपमहाश्च " परस्परोपग्रहो जीवानां " इन सूत्रोंमें पडे हुये उपग्रह शद्ब तो विलक्षण अर्थोको कह रहे हैं । प्रकरण में अब यह कहना है कि वक्ताको श्रोताओं के प्रत्यय करानेका लक्ष्य भरपूर रखना चाहिये। हां, उन सभ्योंको कुछ भी नहीं समझानेवाले शह्नोंका कथन तो निरर्थक ही है म ही वह व्यर्थ कथन एक बार कहा जाय या पुनः कहा जाय निरर्थक निग्रहस्थान में ही अन्तर्भूत हो जायगा । इसके लिये न्यारे " पुनरुक्त " निग्रहस्थान माननेकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार तत्ववेत्ता विद्वान् भले प्रकार बढिया निरूपण कर रहे हैं ।
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सद्वादे पुनर्वादोनुवादोर्थविशेषतः
पुनरुक्तं यथा नेष्टं कचित्तद्वदिहापि तत् ॥
२३१ ॥
एक बार वादकथा कह चुकनेपर प्रयोजनकी विशेषताओंसे पुनः कथन करमारूप अनु वाद जिस प्रकार कहीं कहीं पुनुरुक्त दोषसे दूषित अमीष्ट नहीं किया गया है, उसीके समान यहाँ मी अर्थी विशेषता होनेपर वह पुनुरुक्त दोष नहीं है ।