Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्षचिन्तामणिः
१.५
यों कहनेपर तो हम जैन कह देगें कि प्रतिपत्तिके उपायमूत हो रहे अनेक हेतु अथवा अनेक दृष्टान्तोंका कथन करना भी वक्ताका निग्रहस्थान भला क्यों होगा ! अर्थात्-नहीं, हां, कालयापन करनेके लिये निरर्थक हेतु आदिकोंका अधिक कथन करना तो निरर्थक निग्रहस्थान ही है । अधिक नामक न्यारा निग्रहस्थान नहीं है । जैसे कि जिस प्रकारके न्यून कथन करनेसे अर्थको प्रतीति महीं हो पाती है। वह न्यून कोई न्यारा निग्रहस्थान नहीं होकर निरर्थक ही है उसीके समान फिर यह अधिक भी उस क्लुप्त निरर्थकसे भिन्न कोई न्यारा मिग्रहस्थान नहीं है, यह समझे रहो।
पुनरुक्तं निग्रहस्थानं विचारयितुकाम आह ।
नैयायिकों द्वारा स्वीकार किये गये तेरहवें पुनरुक्त निग्रहस्थानका विचार करनेकी इच्छा रखनेवाले श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकोंको कहते हैं ।
पुनर्वचनमर्थस्य शद्वस्य च निवेदितम् ।
पुनरुक्तं विचारेन्यत्रानुवादात्परीक्षकैः ॥ २२६ ॥
गौतम सूत्र अनुसार परीक्षकों करके पुनरुक्तका लक्षण यह निवेदन किया गया है कि विचार करते समय जो उसी शब्द और अर्थका पुनः कथन करना है, वह पुनरुक्त निग्रहस्थान है, हां, अनुवादके स्थलको छोड देना चाहिये । अर्थात्-अनुवाद करने के सिवाय अर्थ-पुनरुक्त और शब्द-पुनरुक्त दो निग्रहस्थान हैं । समान अर्थवाले पूर्व पूर्व उच्चारित शद्वोंका पीछे भी निष्प्रयोजन प्रयोग करना शबपुनरुक्त है । और समान अर्थवाले मिन्न भिन्न अनुपूर्वीको धार रहे अन्य शद्धोंका निरर्थक कथन करना अर्थपुनरुक्क है । जैसे कि घटः घटः यह पहिला शब्द पुनरुक्त है। घट शद्ध द्वारा घट अर्थको कह कर पुनः कलश शब्द द्वारा उसी अर्थको कहना अर्थपुनरुक्त है । हम तुम्हारे कथनको समझ गये हैं, इस बातका प्रतिपादन करनेके लिये अनुवादमें जो सप्रयोजन व्याख्यान किया जाता है, वह पुनरुक्त कथन दोष नहीं समझा जाता है।
तत्राद्यमेव मन्यते पुनरुक्तं वचोर्थतः। शद्वसाम्येपि भेदेऽस्यासंभवादित्युदाहृतम् ॥ २२७ ॥ हसति हसति स्वामिन्युचैरुदत्यतिरोदिति । कृतपरिकरं स्वेदोद्गारि प्रधावति धावति ॥ गुणसमुदितं दोषापेतं प्रणिंदति निंदति । धनलवपरिक्रीत यंत्रं प्रनृत्यति नृत्यति ॥ २२८ ॥ ( हरिणी छन्द )