Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिके
आचार्य महाराज कहते हैं कि उस पुनरुक्तके प्रकरण में आद्यके ही अर्थपुनरुक्तको विद्वान् लोक दोष मान रहे हैं । जो वचन अर्थकी अपेक्षा पुनरुक्त है वह पुनरुक्त निग्रहस्थान कहा गया ह। क्योंकि शङ्खोंकी समानता होनेपर भी अर्थका भेद हो जानेपर इस पुनरुक्त निग्रहस्थानका अस म्भव है । इसका उदाहरण हरिणीछन्द द्वारा यों दिया गया है कि एक अनुकूल नायिका है । वह स्वामी के हंसनेपर उच्च स्वरसे हंसती है, और स्वामी के रोनेपर अधिक रोती है । या खाटका ग्रहण कर ( खटपाटी लेकर ) अत्यन्त रोने लग जाती है । तथा स्वामीके पसीनाको बाहानेवाले भळे प्रकार दौडने पर वह स्त्री भी दौडने लग जाती है । इस वाक्यमें कृतपरिकर और स्वेदोद्गार ये दोनों क्रियाविशेषण हैं, तथा स्वामीके द्वारा गुणोंके समुदाय से युक्त और दोषोंसे सर्वथा रहित ऐसे भी पुरुषकी भळे प्रकार निन्दा करते सन्ते वह स्त्री भी ऐसे सज्जनपुरुषकी निन्दा करने लग जाती है । एवं थोडे धन ( कुछ पैसों ) से मोल किये गये यंत्र ( खिलौना ) का स्वामीके द्वारा अच्छा नृत्य कराने पर वह भी खिौनेको नचाने लग जाती है । अथवा यंत्र के साथ स्वामीके नाचनेपर वह भी नाचने लग जाती है । तथा चाटुकारता ( खुशामद ) द्वारा ही प्रसन्न होनेवाले स्वामी के अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले अविचारी स्वार्थी सेवकका भी उक्त उदाहरण सम्भव जाता है। यहां पहिले कहे ग सति, रुदति, प्रधावति, इत्यादिक शद्ब तो शतृ प्रत्ययान्त होते हुये सति अर्थमें सप्तमी विभक्तिवाले हैं । दूसरे हसति, रोदिति, धावति इत्यादिक तिङन्त शब्द लट् लकारके क्रियारूप हैं ।
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" कामिनीरहितायते कामिनीरहितायते । कामिनी रहितायते कामिनी रहितायते, एवं " महाभारतीते महाभारतीतेत्यपि द्योततेऽच्छमहाभारतीते रम्भारामा कुरवक कमलारं भारामा कुरवक कमला, रम्माराम कुरवककमला रम्भा रामा कुरवक माळा " इत्यादिक श्लोकोंमें शद्वोंके समान होनेपर भी अर्थभेद होनेके कारण पुनरुक्त दोष नहीं है । अतः शद्वोंके विभिन्न होनेपर या समान होनेपर यदि पुनः दूसरे बार अर्थका भेद् प्रतीत नहीं होय तो " अर्थ पुनरुक्त ही स्वीकार करना चाहिये। जहां शद्ब भी सदृश हैं, और अर्थ भी वही एक है, वहां तो अर्थपुनरुक्तदोष समझो ही ।
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सभ्यप्रत्यायनं यावत्तावद्वाच्यमतो बुधैः ।
स्वेष्टार्थवाचिभिः शद्वैस्तैश्चान्यैर्वा निराकुलम् ॥ २२९ ॥
तदप्रत्याशद्वस्य वचनं तु निरर्थकम् । सकृदुक्तं पुनर्वेति तात्विकाः संप्रचक्षते ॥
२३० ॥
जितनेभर भी शद्वोंके द्वारा सभासद पुरुषोंका व्युत्पादन हो सके उतने भरपूर शद्व विद्वानों करके कहने चाहिये । अतः अपने अभीष्ट अर्थका कथन करनेवाले उन्हीं शद्वोंकरके अथवा अन्य भी वहां यहां के दूसरे दूसरे शद्वों करके आकुळतारहित हो कर भाषण करना उपयोगी है।
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