Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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समयानभ्युपगमाद्बहुप्रयोगाच्च नैवावयवविपर्यासवचनं निग्रहस्थानमित्येतस्य परिहर्तुमशक्तेः। सार्यानुपूर्वी प्रतिपादनाभावोऽवयवविपर्यासवचनस्य निरर्थकत्वान्न्याय्यः । ततो नेदं निग्रहस्थानांतरं।
- पाचार्य कहते हैं कि इस कथनसे यह कथन भी खण्डित कर दिया गया समझो जो कि उद्योतकर पण्डित यों कह रहे हैं कि जिस प्रकार गौ इस संस्कृत पदके अर्थमें यदि गौणी, गाय, गया ऐसे पदोंका प्रयोग कर दिया जाय तो वह मुख श्रृंग साना, आदिसे सहित हो रहे अर्थका प्रतिपादन नहीं कर सकता है। इस कारण अशुद्ध शद्बका संस्कृत शब्दसे व्याख्यान करना व्यर्थ नहीं हैं । इन अशुद्ध शब्दोंको सुनकर वह श्रोता पहिले सत्य गो शब्दको हो
समझता है । पश्चात् गो शब्दसे वदन, चतुष्पाद, सींग आदिसे समवेत हो रहे अर्थको जान 'लेता है। इसी प्रकार प्रतिज्ञा, हेतु, अवयवोंके विपर्यास करके जहां अक्रम शब्दोंका उच्चारण किया गया है, वहां श्रोता प्रथम ही तो पदोंका अनुक्रम बनाकर शब्दोंकी आनुपूर्वीको अन्वित करता हुआ जान लेता है । पीछे सरलतापूर्वक शाब्दबोधको करानेवाली उस भानुपूर्वीसे प्रकृत वाध्य अर्थ को जान लेता है । अतः अक्रमसे नहीं होकर पदोंके ठीक क्रमसे ही अर्थनिर्णय हुआ। लोकमें भी यही देखा जाता है कि सबसे पहिले कर्मको कहनेवाले शब्दका ग्रहण किया जाता है। उसके पीछे अधिकरण सम्प्रदान आदिका प्रयोग होता है । जैसे कि घटको बमानेके लिये पहिले मिट्टीकी छंडि की जाती है । पुनः चक्र, दण्ड, डोरा आदिका उपादान किया जाता है। कार्योंके अनुसार ही उनकी वाचक योजनाओं का क्रम है । अर्थके अनुसार ही शब्द चलता है। मिट्टीको चाकपर रखकर शीतल जलको लिये घट आकारको बनाओ तथा यह शब्दसंकेत भी अक्रमसे नहीं है। किन्तु वाध्य अर्थकी आनुपूर्वी के अनुसार वाचक शब्दोंका क्रम अवश्य होना चाहिये । बाल्य अर्थोकी प्रतिपत्तिके क्रम अनुसार पूर्ववर्ती शब्दोंके पीछे अनुकूल शब्दोंका अनुगमन करमा शब्दकी मानुपूर्वी है, जो कि परिणमन कर रहे वास्तविक अर्थकी आनुपूर्वीकी सहेली है । इस उद्योतकरके कथनपर भाचार्य महारान कहते हैं कि अर्थकी आनुपूर्वीका शब्दोंद्वारा पीछे पीछे व्याख्यान कर रहा उद्योतकर उस दार्शनिकका माम वखाने कि यह किसका शास्त्र है, जो कि अर्थकी आनुपूर्वीके साथ ही शब्दयोजनाको स्वीकार करता है। जब कि साहित्यज्ञ विद्वान अन्वयरहित श्लोकोंको भी पढकर शीघ्र अर्थ लगाते जाते हैं । लोकमें भी भाषा छन्दों या ग्रामीण शब्दोंमें अन्वय योजनाके विना भी झट अर्थकी ज्ञप्ति हो जाती है । तिसी प्रकार शास्त्रमें वाक्य अर्थाका संग्रह करने के लिये शद्वोंका उपादान किया जाता है । और संग्रह किये गये अर्थको तो वाक्योंके द्वारा वक्ता प्रयोग करनेके अवसरपर प्रतिज्ञा, हेतु, आदिक, रूप आनुपूर्वीसे कह कर समझा देता है । इस प्रकार सभी प्रकारोंसे आनुपूर्वीका प्रतिपादन नहीं होनेसे ही अप्राप्तकाल के निग्रहस्थानपनका समर्थन किया गया है । अन्यथा दूसरोंकी प्रश्नमालाकी उस प्रकार प्रयत्न करनेपर भी