Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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सामर्थ्याद्गम्यमानास्तत्र प्रतिज्ञादयोपि संतीति चेत्, तर्हि प्रयुज्यमाना न संतीति तैर्विनापि साध्यसिद्धेः न तेषां वचनं साधनं साध्याविनाभावि साधनमंतरेण साध्यसिद्धेरसंभवात् । तद्वचनमेव साधनमतस्तन्न्यून न निग्रहस्थानं परस्य स्वपक्षसिद्धौ सत्यामित्येतदेव श्रेयः प्रतिपद्यामहे ।
यदि तुम नैयायिक यों कहो कि प्रतिज्ञासे न्यून उदाहरणसे न्यून उपमयसे न्यून और निगमनसे न्यून हो रहे उन वाक्योंमें प्रतिज्ञा आदिक भी गम्यमान हो रहे विद्यमान हैं । अतः पांचों अवयवोंसे साध्यका साधन हुआ, न्यूनसे नहीं । यों कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि वे प्रतिज्ञा आदिक वहां कंठो प्रयोग किये जा रहे तो नहीं हैं । इस कारण उनके विना भी साध्यकी सिद्धि होगई, यह हमको कहना है । दूसरी बात यह भी है कि उनका कथन करना आवश्यक रूप से साध्य सिद्धिमें प्रयोजक नहीं है । केवल हेतुका वचन अनिवार्य है । क्योंकि साध्य के साथ अविनाभाव रखनेवाले साधन के विना साध्यसिद्धिका असम्भव है । अतः उस ज्ञापक हेतुका कथन करना ही अनुमानका प्रधान साधन है । इस कारण उस हेतुसे न्यून हो रहे वाक्यको भले ही वादीकी न्यूनता कह दो, किन्तु वह न्यून नामक त्रुटि वादीका निग्रहस्थान नहीं करा सकती है। हां, दूसरे विद्वान् के निजपक्षकी सिद्धि होनेपर तो " न्यून " वादीका निग्रहस्थान कहा जा सकता है । पहिलेले हम इसी सिद्धान्तको श्रेष्ठ समझते चले आ रहे हैं। अथवा न शब्दको निकाल देनेपर यों अर्थ किया जाता है कि पक्ष और हेतुका कथन किये विना साध्यकी सिद्धि नहीं हो पाती है । अतः उन दोसे न्यून रहे वाक्यको ही न्यून निग्रहस्थान मानो । किन्तु दूसरे अगले विद्वान्को स्वपक्षकी सिद्धि करना आवश्यक है । अन्यथा वादीका निग्रहस्थान नहीं, जयाभाव मंडे ही कहलो ।
प्रतिज्ञादिवचनं तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रयुज्यमानं न निवार्यते तत एवासिद्धो हेतुरित्यादिप्रतिज्ञावचनं हेतुदूषणोद्भावनकाले कस्यचिन्न विरुध्यते तदवचननियमानभ्युपगमात् ।
समझाने योग्य शिष्यके अभिप्रायकी अनुकूलता करके कण्ठोक शब्दोंद्वारा प्रयुक्त किये जा रहे प्रतिज्ञा हेतु आदिके कथन करनेका तो निवारण हम नहीं करते हैं । तिस ही कारणसे तो हेतुके दूषण उठाने के अवसरपर किसी एक विद्वान्का यह हेतु असिद्ध है, यह हेतु विरुद्ध है, इस अनुमानमें उपनय वाक्य महीं बोला गया है, इत्यादिक प्रतिज्ञावाक्यका कथन करना विरुद्ध नहीं पडता है । हेतुरूप पक्षमें विरुद्धपनको साध्य करनेरूप यह हेतु विरुद्ध है । यह धर्म और धर्मीका समुदायरूप प्रतिज्ञावाक्य बन जाता है । प्रतिज्ञा के उच्चारण बिना मी
( साध्य ),
साध्यसिद्धि हो सकती है, ( हेतु ) अतः प्रतिज्ञा ( पक्ष ) नहीं कहनी चाहिये यह भी प्रतिज्ञा है । अतः प्रतिज्ञावाक्यके विना जो शिष्य नहीं समझ सकता है, उसको समझानेके लिए प्रतिज्ञा कहना योग्य है । जो दृष्टान्तके बिना नहीं समझ सकता है, उसके प्रति ( सन्मुख ) दृष्टान्तका कहना भी