Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवातिके
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नैयायिकोंने गौतम सूत्र अनुसार यों कहा है कि जो वाक्य प्रतिज्ञा आदिक अवयवोंमेंसे एक भी अपने अवयव करके हीन होता है, वह न्यून निहप्रस्थान है । इस प्रकार नैयायिकोंका कहना माननीय नहीं है । क्योंकि तिस प्रकारके न्यून हो रहे वाक्यसे भी परिपूर्ण स्वकीय अर्थ में प्रतीति हो रही देखी जाती है । " पुष्पेभ्यः " इतना मात्र कह देने से ही " स्पृहयति का उपस्कार फूलों के लिये अभिलाषा करता है, यह अर्थ निकल पडता I " जीमो " कह देने से ही रसवतीका अध्याहार होकर पूरे स्वार्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है । अतः पाण्डित्यपूर्ण स्वल्प, गम्भीर, निरूपण करनेवालों के यहां न्यूम कोई निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये ।
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यावदवयवं वाक्यं साध्यं साधयति तावद्वयवमेव साधनं न च पंचावयवमेव साध्यं साधयति क्वचित्प्रतिज्ञामंबरेणापि साधनवाक्यस्योत्पत्तेर्गम्यमानस्य कर्मणः साधमात् । तथोदाहरणहीनमपि साधनवाक्यमुपपन्नं साधर्म्यवैधम्र्योदाहरणविरहेपि हेतोर्गमकत्वसमर्थ - नात् । तत एवोपनयनिगमनहीनमपि वाक्यं व साधनं प्रतिज्ञाहीनवत् विदुषः प्रति हेतोरेव केवलस्य प्रयोगाभ्युपगमात् । धूमोत्र दृश्यते इत्युक्तेपि कस्यचिदग्निप्रतिपत्तेः प्रवृचिदर्शनात् ।
उपयोगी हो रहे जितने अवयवोंसे सहित हो रहा वाक्य प्रकृत साध्यको साथ देता है, उतने ही अवयवोंसे युक्त हो रहे वाक्यको साध्यका साधक माना जाता है। पांचो ही अवयव कहें जाय तभी साध्यको साधते हैं, ऐसा तो नियम नहीं है। देखिये, कहीं कहीं प्रतिज्ञा वाक्य के विना भी हेतु आदिक चार अवयवों के वाक्यको अनुमान वाक्यपनेकी उपपत्ति है, या प्रतिज्ञाके विना भी चार अवयवोंद्वारा साधनवाक्यकी उपपत्ति हो जाती है । क्योंकि विना कहे यों ही जान लिये गये साध्यस्वरूप कर्म की सिद्धि कर दी जाती है । प्रतिज्ञा वाक्यके कहने की कोई आवश्यकता नहीं है । तिसी प्रकार उदाहरणसे हीन हो रहे भी अनुमिति साधनवाक्यकी उपपत्ति हो चुकी समझनी चाहिये । हेतु और साध्य के धर्मापनको धार रहे अन्वयदृष्टान्त एवं हेतु और साध्यके विधर्मापनको धार रहे व्यतिरेक दृष्टान्तके बिना भी हेतु के गमकपनका समर्थन कर दिया गया है। कहीं तो समर्थन कर दिया गया हेतु ही अकेला साध्यको साधने में पर्याप्त हो जाता है। तिस ही कारण से उपमय और निगमनसे हीन हो रहा वाक्य भी परार्थ अनुमानका साधन हो जाता है, जैसे कि प्रतिज्ञाहीन वाक्यसे साध्यकी सिद्धि हो जाती है। क्योंकि विद्वानोंके प्रति केवल हेतुका ही प्रयोग करना स्वीकार किया गया है । यहां धुआं दीख रहा है। इतना कहे जा चुकनेपर भी किसी किसी उदास विद्वान्को निकी प्रतिपत्ति हो जाती है । और उससे यथार्थ अग्निको पकडने के लिये उसकी प्रवृत्ति हो रही देखी जाती है ।