Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
प्रतिज्ञावाक्य और वाक्यका विरोध हो जाना प्रतिज्ञाविरोध है । इस प्रकार गौतम ऋषिका बनाया हुआ न्यायदर्शनका सूत्र है। जहां हेतुकरके प्रतिज्ञाका विरोध हो जाय और प्रतिज्ञासे हेतु विरुद्ध पड जाय वह प्रतिज्ञाविरोध नामका निग्रहस्थान है। जैसे कि द्रव्य पक्ष ) गुणोंसे मिन्न है ( साध्य ), क्योंकि भिन्नपनेसे ग्रहण नहीं होता है ( हेतु ) । अर्थात् - द्रव्य से गुणभिन्न प करके नहीं दीखता है । इस प्रकार न्यायवार्त्तिक ग्रन्थ है । यहां द्रव्यसे गुण भिन्न है, इस प्रतिज्ञाका गुण और द्रव्यका भिन्न भिन्न ग्रहण नहीं होना इस हेतुके साथ परस्पर में विरोध है । अतः वादीको " प्रतिज्ञाविरोध " निग्रहस्थान प्राप्त हुआ । किन्तु यह न्यायवार्त्तिकका कथन युक्तियों सहित नहीं है ।
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प्रतिज्ञायाः प्रतिज्ञात्वे हेतुना हि निराकृते । प्रतिज्ञाहानिरेवेयं प्रकारांतरतो भवेत् ॥ १४३ ॥
आचार्य कहते हैं कि जब विरुद्ध हेतुकरके प्रतिज्ञाका प्रतिज्ञापन निराकृत हो चुका है, तो यह एक दूसरे प्रकारसे प्रतिज्ञाहानि ही हो जावेगी । न्यारा निग्रहस्थान नहीं ठहरा । द्रव्यं भिन्नं गुणात्स्वस्मादिति पक्षेभिभाषिते । रूपाद्यर्थांतरत्वेनानुपलब्धेरितीर्यते ॥ १४४ ॥ न हेतुतस्तेनासंदेहं भेदसंगरः ।
तदभेदस्य निर्णीतेस्तत्र तेनेति बुध्यताम् ॥ १४५ ॥
भाकर कहते हैं कि यदि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिर्नोपपद्यते, अथ रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः । गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यमिति नोपपद्यते, गुणव्यतिरिक्तञ्च द्रव्यं रूपादिभ्यश्वार्थान्तरस्यानुपलब्धिरिति विरुध्यते व्याहन्यते न सम्भवतीति " | द्रव्य ( पक्ष ) अपने गुणोंसे मिन्न है ( साध्य ), क्योंकि रूप, रस, आदि गुणोंसे भिन्न अर्थपने करके द्रव्यकी उपलब्धि नहीं हो रही है । इस प्रकार वादीद्वारा पक्षका कथन कर चुकनेपर यों कहा जाता है कि यदि हेतुकी रक्षा करते हो तो गुणभेदस्वरूप साध्यकी रक्षा नहीं बन सकती है । और यदि साध्यकी रक्षा करते हो तो रूपादिकसे मिन्नकी अनुपलब्धि होना यह हेतु नष्ट हुआ जाता है। जिस कारण से कि हेतु व्यवस्थित है, उससे भेद सिद्ध करने की प्रतिज्ञा निस्सन्देह नष्ट हो जाती है। क्योंकि वहां उस हेतुकरके द्रव्य के साथ उन गुणोंके अभेदका निर्णय हो रहा है, यह समझ लेना चाहिये ।
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तोर्विरुद्धता वा स्याद्दोषोयं सर्वसंमतः ।
प्रतिज्ञादोषता त्वस्य नान्यथा व्यवतिष्ठते ॥ १४६ ॥