Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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अथवा यह हेतुका विरुद्धता नामक दोष है, जो कि सभी वादियोंके यहां मले प्रकार मान लिया गया है। आप नैयायिकोंके यहां भी विरुद्धहेत्वाभास माना गया है। इस प्रतिज्ञाविरोधको अन्य प्रकारों से प्रतिज्ञासम्बन्धी दोषपना तो नहीं व्यवस्थित होता है। अर्थात्-यह हेतुका विरुद्ध नामक दोष है । प्रतिज्ञाका दोष नहीं है । हेत्वाभासोंकी निग्रहस्थानोंमें गणना करना क्लुप्त है। फिर " प्रतिज्ञाविरोध" नामका तीसरा निग्रहस्थान व्यर्थ क्यों माना जा रहा है!
यदपि उद्योतकरेणाभ्यधायि एतेनैव प्रतिज्ञाविरोधोप्युक्तः, यत्र प्रतिज्ञा स्ववचनेन विरुध्यते यथा “ श्रमणा गर्भिणी" नास्त्यात्मेति वाक्यांतरोपप्लवादिति, तदपि न युक्तमित्याह ।
__जो भी वहां उद्योतकर पण्डितने यह कहा था कि इस उक्त कथन करके ही प्रतिवाविरोध नामक निग्रहस्थान भी कहा जा चुका है। जहां अपने वचन करके ही अपनी प्रतिज्ञा विरुद्ध हो जाती है। जैसे कि " तपस्विनी या दीक्षिता स्त्री गर्भवती है " " अपना आत्मा नहीं है।" "मैं चिल्लाकर कह रहा हूं कि मैं चुप हूं" इत्यादिक प्रयोग स्वकीय वचनोंसे ही विरुद्ध पड जाते हैं। जो तपस्विनी है, वह पुरुष संयोग कर गर्भ धारण नहीं कर सकती है और जो गर्भधारणा कर रही है, वह तपस्विनी नहीं है । गर्भधारणके पश्चात् वैराग्य हो जाय तो भी उस स्त्रीको बालक प्रसव और शुद्धि होनेके पीछे ही दीक्षा दी जा सकती है । तपस्या करती हुयी भ्रष्ट होकर यदि गर्भिणी हो जायगी तब तो उसकी तपस्या अवस्था ही नष्ट होगई समझी जायगी। यो प्रतिज्ञाविरोधके लक्षणमें जहां प्रतिज्ञा स्ववचनसे विरुद्ध हो जाय वहां इतना अन्य वाक्यका उपस्कार करना चाहिये । यहांतक उद्योतकर कह चुके । अब प्राचार्य कहते हैं कि वह कहना भी उयोतकरका युक्तिसहित नहीं है । इस बातको श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक द्वारा स्पष्ट कहते हैं।
प्रतिज्ञा च स्वयं यत्र विरोधमधिगच्छति ।
नास्त्यात्मेत्यादिवत्तत्र प्रतिज्ञाविधिरेव न ॥ १४७ ॥ जिस प्रकरणमें अपने वचनकरके ही धर्म और धर्मीका समुदाय वचनस्वरूप प्रतिज्ञा स्वयं विरोधको प्राप्त हो जाती है जैसे कि कोई जीव यों कह रहा है कि आत्मा नहीं है, अथवा एक पुरुष यों कहता है कि मेरी माता बन्ध्या है, या कोई पुत्र यों कहे कि मैं किसी भी मां, बापका अपत्य नहीं हूं इत्यादिक प्रतिज्ञायें स्वयं विरोधको प्राप्त हो रही हैं। उन प्रकरणोंमें सच पूछो तो प्रतिबाकी विधि ही नहीं हुई है । अर्थात्-स्ववचनोंसे बाधित हो रहे प्रतिज्ञा वाक्यके स्थळपर बादी स्वयं अपनी प्रतिबाकी हानि कर बैठता है।
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