Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थकोकवार्तिके
अनन्त प्रमेयका क्षयोपशम अनुसार प्रबोध करा देते हैं। नैयायिकोने हेत्वन्तरका उदाहारण यों दिया है कि यह सम्पूर्ण जगत् ( पक्ष ) मूलमें एक त्रिगुणात्मक प्रकृतिको कारण मानकर प्रकट हुआ है (साध्य ) क्योंकि घट, पट, आदि विकारोंका परिणाम देखा जाता है ( हेतु ) । इस प्रकार कपिल मतानुसार वादी के कहने पर प्रतिवादी द्वारा नाना प्रकृतिवाले विवतसे व्यभिचार दिखाकर प्रत्यवस्थान दिया गया। इस दशा में वादीद्वारा एक प्रकृति के साथ समन्वय रखते हुये यदि इतना हेतुका विशेषण दे दिया जाय तो वादीका हेत्वन्तर निग्रहस्थान है । अथवा प्रकृत उदाहरणमें शद अनित्य है, ( प्रतिज्ञा ) बाह्य इन्द्रियोंसे जन्य प्रत्यक्षज्ञानका विषय होनेसे ( हेतु ), यहां किसी प्रतिवादीने सामान्यकर के व्यमिचार दिया। क्योंकि बहिरिन्द्रिय ग्राह्य पदार्थों में ठहरनेवाली, नित्य, व्यापक, जाति भी उन्हीं बहिरंग इन्द्रियोंसे जान की जाती है, ऐसा प्रतिवादीने मान रक्खा है । ऐसी दशामें वादी हेतुका सामान्यसे सहित होते हुये इतना विशेषण लगा देवें । क्योंकि सामान्यमें पुन: दूसरा सामान्य रहता नहीं है | अतः सामान्यवान् सामान्य नहीं, यों सामान्यकर के हुआ व्यभिचार टल जाता है,
वादीका वन्तर निमइस्थान मान लिया जाता है । इसमें आचार्योंका यह कहना है कि हेतुकी त्रुटि होनेपर जैसे विशेषण लगाकर या अन्य हेतुका प्रयोग कर देनेपर हेत्वन्तर हो जाता है, उसी प्रकार जो जो बाह्य इन्द्रिय जन्य प्रत्यक्षका विषय है, वह वह अनित्य है। वादीके इस प्रकार उदाहरणमें भी न्यूनता दिखलायी जा सकती है । बाह्य इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षका विषय शद्ब है | उस उपनय में भी प्रतिवादी द्वारा त्रुटि कही जा सकती है । अतः ये भी न्यारे न्यारे निग्रहस्थान या हेत्वन्तरके प्रकार मानने पडेंगे ।
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यदि हेत्वंतरेणैव निगृहीतस्य वादिनः । दृष्टांताद्यंतरं तत्स्यात्कथायां विनिवर्तनात् ॥ १८९ ॥ तदानैकांतिकत्वादिहेतुदोषेण निर्जिते ।
मा भूत्वंतरं तस्य तत एवाविशेषतः ॥ १८० ॥ यथा चोद्धाविते दोषे हेतोर्यद्वा विशेषणं । ब्रूयात्कश्चित्तथा दृष्टांतादेरपि जिगीषया ॥ १९९ ॥
यदि आप नैयायिक यों कहें कि अकेले हेत्वन्तरकरके ही निग्रहको प्राप्त हो चुके वादीके ऊपर पुनः दृष्टान्तांतर आदिका उठाना तो उतनेसे ही हो जायगा । तिस कारण वाद कथा में Baat विशेषरूप से निवृत्ति कर दी गयी है । तब तो हम जैन कहते हैं कि तिस ही कारण प्रतिवादीद्वारा अनैकान्तिकपन, विरोध, असिद्धि, आदिक हेतुके दोषोंके उठा देनेसे ही वादीके