Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
विकल्पों में आदिका विकल्प तो यहां असम्भव हो जानेसे ही योग्य नहीं है । अतः तिस सरीखा यामी निरर्थक सदृश है। क्योंकि जगत् में सभी प्रकार अर्थोंसे शून्य होय ऐसे शब्दोंका असम्भव है । वर्णक्रम, रुदन करना, कीट भाषा, अट्टहास, आदि शब्दोंको भी किसी अपेक्षासे अर्थ सहितपना है । सूक्ष्म दृष्टिसे उसका विचार करनेपर कहीं कहीं अनुकरण कराना रूप अर्थकरके वे शद्व अर्थवान् हैं। किसी न किसी रूपमें सभी शद्वोंका अर्थके साथ योग हो रहा है । छोटे बालकों को पढाते समय वर्णमाला के अक्षरोंका वैसाका बैसा ही उच्चारण करा कर अनुकरण ( नकल ) कराया जाता है । अशुद्ध या अवाच्य शब्द बोलनेवाले अझ जीवके उच्चारणका पुनः आवश्यकता अनुसार अनुवाद करते समय श्रेष्ठवक्ताको भी निकृष्ट शब्द बोलने पडते हैं । काक, पिक आदिके शब्द तो अन्य मी अर्थोको धारण करते हैं । व्याकरणमें तो प्रायः शब्दोंके अनुकरण कहने पडते हैं । अग्नि शब्दकी सुसंज्ञा है । वैश्वानर, आनुपूर्वीकी नहीं । अतः सर्वथा अर्थोंसे शून्य तो कोई शब्द ही ' नहीं है, पहिला बिकल्प गया ।
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द्वितीय कल्पनायां तु सर्वमेव निरर्थकम् । निग्रहस्थानमुक्तं स्यात्सिद्धवन्नोपयोगवत् ॥ १९९ ॥ तस्मान्नेदं पृथग्युक्तं कक्षापिहितकादिवत् । कथाविच्छेदमात्रं तु भवेत्पक्षांतरोक्तिवत् ॥ २०० ॥
हां, दूसरे पक्षकी कल्पना करनेपर पूर्वमें कहे जा चुके सभी निग्रहस्थान निरर्थक निग्रहस्थान ही हो जावेंगे, यों कह दिया गया समझो । प्रसिद्ध हो रहे निरर्थक निग्रहस्थान के समान वे प्रतिहानि आदिक भी कोई साध्यको साधनेमें उपयोगवाळे नहीं है ? अथवा साध्यसिद्धि में अनुपयोगी होनेसे सभी तेईसों निग्रहस्थानोंका निरर्थकमें अन्तर्भाव कर देना चाहिये । तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि यह निग्रहस्थान पृथक् मानना युक्त नहीं है। जैसे कि खांसना, कांपना, हाथ फटका - रना आदिक कोई मी वक्ताकी क्रियायें साध्य उपयोगी नहीं है, निरर्थक हैं, फिर भी वे न्यारी निग्रहस्थान नहीं मानी गयी है । थोडीसी विशेषताओंसे यदि भिन्न भिन्न निग्रहस्थान माने जावेंगे तो कांख खुजाना या धोतीकी कांछ ढंकना, थूकना, शिरहिलामा आदिकको भी न्यारा निग्रहस्थान मानना पडेगा । वर्णक्रम के समान ये भी साध्यसिद्धि के उपयोगी नहीं है । हां, इस प्रकार निरर्थक बातोंके बकते रहने से वादकथाका केवल विच्छेद तो अवश्य हो जायगा । जैसे कि प्रतिज्ञान्तर, या शब्द मित्य है, इस पक्षको छोडकर आत्मा व्यापक है, इस अन्य पक्षका कथन करना, are वादको बिगाडनेवाला है। इतनेसे ही किसीका जय, पराजय, नहीं हो सकता है 1
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तथाहि - ब्रुवन्न साध्यं न साघनं जानीति असाध्यसाधनं चोपादत्ते इति निगृह्यते स्वपक्षं साधयतान्येन नान्यथा, न्यायविरोधात् ।