Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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यदप्युक्तं अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालं अवयवानां प्रतिज्ञादीनां विपर्ययेणाभिघानं निग्रहस्थानमिति । तदपि न सुघटमित्याह ।
और जो भी नैयायिकोंने दशमें निग्रहस्थान अप्राप्तकालका यह लक्षण कहा था कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन इनके क्रमका उल्लंघन कर विपर्यासरूपसे कथन करना अत्राप्तकाल निग्रहस्थान है । अर्थात्-वादी द्वारा अनुमानके अवयव प्रतिज्ञा, हेतु, आदिका विपर्यय करके कथन किया जाना वादीका अप्राप्तकाल निग्रहस्थान है । समाको देखकर क्षोभ हो जानेसे या अज्ञानता छाजानेसे वादी अवयवोंको उल्टा कर बैठता है । वादी प्रतिवादियों के वक्तव्यका क्रम यों है कि पहिले ही वादी करके साधनको कह कर स्वकीय कथनमें सामान्यरूपसे हेत्वाभासोंका निराकरण करना चाहिये, यह एक पाद है । प्रतिवादीको वादीके कथनमें उलाहना देना चाहिये, यह दूसरा पाद है । प्रतिवादीको अपने पक्षकी सिद्धि करना और उसमें हेत्वाभासोका निराकरण करना यह तृतीय पाद है । जय पराजयकी व्यवस्था कर देना चौथा पाद है। यह वादका क्रम है । इसका विपर्यास करनेसे या प्रतिज्ञा, हेतु, आदिकके क्रमसे वचन करनेकी व्यवस्था हो चुकनेपर आगे पीछे कह देने से निग्रह हो जावेगा, इस प्रकार वह नैयायिकों का कहना भी भले प्रकार घटित नहीं होता है । इस बातको ग्रन्थकार वार्तिकों द्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
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संधाद्यवयवान्न्यायाद्विषर्यासेन भाषणम् ।
अप्राप्तकालमाख्यातं तच्चायुक्तं मनीषिणाम् ॥ २१२ ॥ पदानां क्रमनियमं विनार्थाध्यवसायतः । देवदत्तादिवाक्येषु शास्त्रेष्वेवं विनिर्णयात् ।। २१३ ॥
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प्रतिज्ञा, हेतु, आदि अवयवोंके कथन करनेके न्यायमार्गसे विपरीतपने करके भाषण करना वक्ताका अप्राप्तकाळ निग्रहस्थान हो चुका बखाना गया है । किन्तु वह न्यायबुद्धिको रखनेवाले गौतम ऋषिका कथन बुद्धिमानोंके सन्मुख समुचित नहीं पडता है । क्योंकि पदोंके क्रमकी नियतिके विना भी अर्थका निर्णय हो जाता है । देवदत्त ( कर्त्ता ) लड्डुको ( कर्म ) खाता है (क्रिया) । लड्डूको देवदत्त खाता है या खाता है (क्रिया) देवदत्त ( कर्त्ता ) लड्डुको ( कर्म ), अथवा छड्डूको खाता है देवदत्त, इत्यादिक लौकिक वाक्योंमें पदोंका व्युत्क्रम हो जानेसे भी अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है। इसी प्रकार शास्त्रोंमें भी कर्त्ता, कर्म, क्रिया या प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदिका क्रमभंग हो जानेपर भी अर्थका विशेषरूपसे निर्णय हो जाता है । पद्य आत्मक छन्दोंमें आगे पीछे कहे गये पदोंको सुनकर भी संगत अर्थकी झटिति यथार्थ प्रतिपत्ति हो जाती है । प्रौढ विद्वान् श्लोकोंकों पढते जाते हैं, ट अर्थको साथ साथ समझते जाते हैं। अतः अप्राप्तकाल निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिये ।