Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तरवार्यश्लोकवार्तिके
आप नैयायिक यदि प्रतिज्ञान्तर प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, इन भिन्न भिन्न प्रकारों करके प्रतिज्ञाहानिको कह रहे हैं, जो कि प्रकार तुम्हारे यहां भिन्न भिन्न निग्रहस्थानोंके प्रयोजक हैं, तब तो हम तुमसे पूंछते हैं कि यह प्रनि ज्ञाहानि अन्य दूसरे प्रकारों से भी क्यों नहीं भळे प्रकार कह दी जाती है । क्योंकि उस प्रतिज्ञापानिके निमित्त हो रहे प्रकारोंका कोई नियम नहीं है । दृष्टान्तकी हानिसे, उपनयकी हानिसे, मूर्खतासे, विक्षिप्ततासे, राजनीतिकी चालाकीसे
आदि प्रकारोंसे भी प्रतिज्ञाकी दानि कायी जा सकती है। उन प्रकारोंकी इयत्ता नियत नहीं है। ऐसी दशामें उन निग्रस्थानोंकी आपके द्वारा कही गयी बाईस या चौवीस संख्याका नियत परिमाण कहां रहा ? यों छोटे छोटे अनेक प्रकारोंके भेदसे तो पचासों निग्रहस्थान मानकर भी संख्याकी पूर्णता नहीं हो सकती है । तिस कारणसे उन नैयायिकोंके वचन आप्तद्वारा ज्ञात होकर कहे गये नहीं हैं । जिस दर्शनका सर्वज्ञकरके आद्यज्ञान होकर उपदेश दिया जाता है, वे वचन आप्तोपत्र हैं, अन्य नहीं ।
पक्षस्य प्रतिषेधे हि तूष्णींभावो थरेक्षणं । व्योमेक्षणं दिगालोकः खात्कृतं चपलायितम् ॥ १८३ ॥ हस्तास्फालनमाकंपः प्रस्वेदाद्यप्यनेकधा । निग्रहांतरमस्यास्तु तत्प्रतिज्ञांतरादिवत् ॥ १८४॥
देखिये प्रतिज्ञाफी हानि करनेके ये अन्य भी अनेक प्रकार हैं । प्रतिवादी द्वारा वादीके पक्षका नियमसे प्रतिषेध कर देनेपर वादीका चुप रह जाना या पृथ्वीको देखने लग जाना, ऊपर आकाश को देखते रहना, इधर उधर पूर्व आदि दिशाओंका अवलोकन करना, खकारना, भागने दौडने ळग जाना अथवा बकवाद करना, कषायपूर्वक उद्वेगमें आकर हाथोंको फटकारना, शरीरका चारों
ओरसे कम्प होना, पसीना आजाना, व्यर्थ गाने लग जाना, चंचल चेष्टा करने लग जाना, बच्चोंको खिलाने लग जाना, अन्य कार्यों में व्यग्र हो जाना आदिक अनेक प्रकारके अन्य निग्रहस्थान इस नैयायिकके यहां बन बैठेंगे । जैसे कि स्वल्पभेदके ही कारण उन प्रतिज्ञाहानिसे न्यारे प्रतिक्षान्तर, प्रतिज्ञासंन्यास आदिको मान लिया गया है । यदि भूमिके देखने आदि प्रकारोंको नियत निग्रहस्थानोंमें गर्मित करोगे तो प्रतिज्ञासंन्यासको भी प्रतिज्ञाहानिमें गर्मित कर लेना चाहिये। अतिरिक्त निग्रहस्थानोंका व्यर्थमें बोझ बढाना अनुचित है ।
हेत्वंतरं विचारयन्नाह।
पांचमे हेत्वन्तर नामके निग्रहस्थानका विचार करते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिम वार्तिकोंका प्रतिपादन करते हैं।