Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
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प्रतिज्ञावाक्यकी अव्यवस्था कर दी जाय । वह तीनों प्रकारसे आपादन करना केवळ कथाके विच्छेदको करता है । एतावता पुनः वादीका पराजय नहीं हो जाता है। क्योंकि प्रतिवादीको जय प्राप्त करने के किये अपने पक्षका साधन करना अत्यावश्यक है । इम तो इसी सिद्धान्तको न्यायस्वरूप समझ रहे हैं । मावार्थ-चातुर्य, छल, प्रतिभा, आदिक दुर्गुण, सद्गुणोंसे परिपूर्ण हो रहे जगत् में अनेकान्तोंको धारनेवाली वस्तुकी सामर्थ्य से चाहे जो कोई चाहे जिस किसी प्रतिज्ञाका खण्डन कर सकता है । कोई हितोपदेशी यदि शिष्य के प्रति ज्ञान सम्पादन करनेको साध रहा है तो " मूर्खः सुखी जीवति " इस सिद्धान्तकी पुष्टि कर पूर्व प्रतिज्ञाकी हानि करायी जा सकती है । धन उपार्जन करना चाहिये इस प्रतिज्ञाका " नंगा सोवे चौडेमें, धनके सैकडों शुत्रु हैं " आदि वाक्यों द्वारा बिरोध किया जा सकता है । " धर्मः सेव्यः " इस पक्षका आज कल जो अधिक धर्म सेवन करता है, वह दुःखी रहता है, आदि कुयुक्तिपूर्ण वाक्यों द्वारा प्रत्याख्यान किया जा सकता है । विवाहित पुरुषोंकी अपेक्षा कारे पुरुष निश्चिन्त होकर आनन्दमें रहते हैं, कारोंकी अपेक्षा विवाहित पुरुष भोग उपभोगमें छीन रहते हैं । अभिमानसे भरपूर हो रही सासु वार वार जलका आदर कर रही पुत्रवधू पर क्रुद्ध भी हो सकती है, चाहे तो प्रेम भी कर सकती है । इत्यादिक अनेक लौकिक विषय भी अपेक्षाओं से सिद्ध हो सकते हैं । फिर भी प्रतिस्पर्धा रखनेवाले वादी प्रतिवादी, एक दूसरेकी प्रतिज्ञाका खण्डन कर देते हैं । तथा आपेक्षिक प्रतिकूल सिद्धान्तको पूर्वपक्षमाला कदाचित् स्वीकार भी करता है | किन्तु इतनेसे ही भळे मानुष वादीका पराजय नहीं हो जाता है । तथा केवल चोध उठा कर कुछ बातको स्वीकार करा लेनेसे ही प्रतिवादी है । हां, प्रतिवादी यदि अपने पक्षको परिपूर्ण रूप से सिद्ध कर दे तो यही न्यायमार्ग है ।
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जीतको नहीं लूट सकता
जयी हो सकता है ।
प्रतिज्ञावचनं तु कथाविच्छेदमात्रमपि न प्रयोजयति तस्यासाधनांगत्वान्यवस्थितेः पक्षधर्मोपसंहारवचनादित्युक्तं प्राक् । केवलं स्वदर्शनानुरागमात्रेण प्रतिज्ञावचनस्य निग्रह - त्वेनोद्भावनेपि सौगतैः प्रतिज्ञाविरोधादिदोषोद्भावनं नानवसरमनुमंतव्यं, अनेकसाधनवचनवदनेकदूषणवचनस्यापि विरोधाभावात् सर्वथा विशेषाभावादिति विचारितमस्माभिः ।
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बौद्धोंने जो यह कहा था कि अर्थ या प्रकरणसे ही जो प्रतिज्ञा जानी जा सकती थी, उस प्रतिज्ञाको कंठोक्त व्यर्थ कहना वादीका निग्रहस्थान है । इसपर हमारा यह कहना है कि प्रतिज्ञाका वचन तो कथाके विच्छेदमात्रका भी प्रयोजक नहीं है । अर्थात् - प्रतिवादी तो ऐसी चेष्टा कर रहा है कि जिससे कथाका विच्छेद होकर वादका अन्त हो जाय और मैं सेतमेतमें जयको लूटता हुआ फूलकर कुप्पा होके लब्धप्रतिष्ठ हो जाऊं । किन्तु वादी कंठोक्त प्रतिज्ञा वाक्यको बोलता हुआ कथाका विच्छेद नहीं कर रहा है । क्योंकि वह प्रतिज्ञाका वचन साध्यसिद्धिका अंग नहीं । यह