Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
होनेसे (हेतु ) यहाँ प्रतिवादी यदि एक ही बाधित या असिद्ध किसी दोषको उम देता है, तो प्रतिवादीका निग्रह है। अर्थात् प्रतिवादीको सभी दोष उठाने चाहिये । उसी प्रकार वादीके ऊपर एकके सिवाय अन्य निग्रहस्थानोंका उत्थापन करना समुचित है। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार होनेपर तुम्हारे यहां वादी या प्रतिवादी दोनोंका एक ही समयमें निग्रह हो जावेगा। क्योंकि वादी तो असाधनके अंगोंका कथन कर रहा है। और प्रतिवादी अपने कर्तन्यरूपसे माने गये सम्पूर्ण दोष उत्थापनके करनेमें प्रमादी हो रहा है। अतः धर्मकीर्ति महाशयका विचार धर्मपूर्वक यशको बढानेवाला नहीं है।
साधनावयवस्यापि कस्यचिद्वचने सकृत् ।
जयोस्तु वादिनोन्यस्यावचने च पराजयः ॥ १७२ ॥ , किसी भी एक साधनके अवयवका कथन करनेपर एक ही समयमें वादीका जय और अन्य (दूसरे ) साधन अवयवका नहीं कथन करनेपर वादीका पराजय हो जाना चाहिये । अर्थात्किसी स्थळमें साधन के अवयव यदि कई हैं, और वादीने यदि एक ही साधनांगका निरूपण किया है, और दूसरे साधनांगोंका कथन नहीं किया है। ऐसी दशामें साधनाशके कहने और साधनाङ्गके नहीं कहनेसे वादीका एक साथ जय और पराजय प्राप्त हो जानेका प्रसंग आजावेगा।
प्रतिपक्षाविनाभाविदोषस्योद्भावने यदि । वादिनि न्यक्कृतेन्यस्य कथं नास्य विनिग्रहः ॥ १७३॥ तदा साध्याविनाभावि साधनावयवेरणे ।
तस्यैव शक्त्युभयाकारेन्यस्यवाक् च पराजयः ॥ १७४ ॥
यदि बौद्ध यों कहें कि प्रतिकूल पक्षके अविनाभावी दोषका प्रतिवादी द्वारा उत्थापन हो जानेपर वादीका तिरस्कार हो जाता है, तब तो हम कहते हैं कि साध्यके साथ अविनामाव रखनेवाले साधनरूप अवयवका कथन करनेपर वादी द्वारा इस अन्य प्रतिवादीका विशेष रूपसे निग्रह क्यों नहीं हो जावेगा ? जब कि उस साध्याविनामावी हेतुके कथन करनेसे ही दूसरे प्रतिवादीका पराजय हो जाता है। इस कारिकाका उत्तरार्ध कुछ अशुद्ध प्रतीत होता है । विद्वान् जन समझकर व्याख्यान करलेवें।
विरुद्धोद्भावनं हेतोः प्रतिपक्षप्रसाधनं । यथा तथाविनाभाविहेतूक्तिः स्वार्थसाधना ॥ १७५॥