Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
छाये जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि वह उद्योतकरका कहना भी परीक्षा भारको सहन करने में समर्थ नहीं है । इसीको ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
दृष्टान्तस्य च यो नाम विरोधः संघयोदितः । साधनस्य च दृष्टान्तप्रमुखैर्मानवाधनम् ॥ १५५ ॥ प्रतिज्ञादिषु तस्यापि न प्रतिज्ञाविरोधता । सूत्रारूढतयोक्तस्य भांडालेख्यनयोक्तिवत् ॥ १५६ ॥
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दृष्टान्तका प्रतिज्ञा करके और भी जो कोई विरोध कहा गया है तथा दृष्टान्त प्रभृतिकर के हेतुका विरोध कहा गया है, एवं प्रतिज्ञा आदिकोंमें प्रमाणोंके द्वारा बाधा या विरोध आ जाना निरूपण किया है, उसको भी " प्रतिज्ञाविरोध - निग्रहस्थानपना " नहीं है । क्योंकि गौतम सूत्रमें प्रतिज्ञा और हेतुके विरोधको प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान रूपसे आरूढपने करके कहा गया है । जैसे कि मिट्टी पाषण या धातुके बने हुये बर्तन भाण्डों में जो प्रथमसे उकेर दिया जाता है, वह चिरकाल तक स्थिर रहता है, इस नीतिके कथन समान सूत्रमें आरूढपने करके कहे गये तत्वको ही प्रतिज्ञाविरोध में लेना चाहिये, अधिकको नहीं ।
प्रतिज्ञानेन दृष्टांतबाधने सति गम्यते ।
तत्प्रतिज्ञाविरोधः स्याद् द्विष्ठत्वादिति चेन्मम् ॥ १५७ ॥ हंत हेतुविरोधोपि किं नैषोभीष्ट एव ते । दृष्टांतादिविरोधोपि हेतोरेतेन वर्णितः ॥ १५८ ॥
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यदि उद्योतकरका यह मन्तव्य होय कि प्रतिज्ञा करके दृष्टान्तकी बाधा हो जानेपर स्वयं अर्थापत्ति से यह जान लिया जाता है कि वह प्रतिज्ञाविरोध है । तिस कारण दृष्टान्तविरोध, प्रमाविरोधको प्रतिज्ञाविरोधमें ही वक्तव्य कहा गया है । क्योंकि विरोध पदार्थ दोमें ठहरता है । दृष्टान्त और प्रतिज्ञाका विरोध तो दृष्टान्त और प्रतिज्ञा दोनों में समाजाता है । अतः दृष्टान्तविरोधको " प्रतिज्ञाविरोध कह सकते हैं । साझेकी दूकानका आधिपत्य एक व्यक्तिके लिये भी व्यवहृत हो जाता है । इस प्रकार उद्योतकरका मन्तव्य होनेपर तो आचार्य महाराज कहते हैं कि हमको खेदके साथ कहना पडता है कि यह हेतुविरोध भी तुम्हारे यहां क्यों अभीष्ट कर लिया गया है । तथा हेतुका दृष्टान्त आदिके साथ विरोध भी स्वतंत्र रूप से न्यारा निग्रहस्थान क्यों नहीं मान किया गया है । इस कथनसे यह भी वर्णनायुक्त ( कथित ) कर दिया गया है । जब कि प्रतिज्ञा-