Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिके
आगे प्रतिज्ञाहानिवत् पडा ही हुआ है । बात यह है कि बौद्धोंके अनुसार प्रतिज्ञान्तरके निषेधकी व्यवस्था युक्त नहीं है।
तर्हि कथमिदमयुक्तमित्याह ।
किसीका प्रश्न है कि तो आप आचार्य महाराज ही बताओ, यह प्रतिज्ञान्तर किस प्रकार अयुक्त है ! ऐसी विनीत शिष्यकी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
ततोनेनैव मार्गेण प्रतिज्ञांतरसंभवः । इत्येतदेव नियुक्तिस्तद्धि नानानिमित्तकं ॥ १३७ ॥ प्रतिज्ञाहानितश्चास्य भेदः कथमुपेयते । पक्षत्यागविशेषेपि योगैरिति च विस्मयः ॥ १३८ ॥
तिस कारणसे नैयायिकोंने जो मार्ग बताया है, उस ही मार्ग करके प्रतिज्ञान्तर नामका निनहस्थान सम्भवता है, इस प्रकार ही यह आग्रह करना तो युक्तिरहित है। क्योंकि वह प्रतिबान्तर अन्य अनेक निमित्तोंसे भी सम्भव जाता है । हम जैन नैयायिकोंसे पूछते हैं कि आप इस प्रतिबान्तर का प्रतिबाहानि निग्रहस्थानसे मिलपना कैसे स्वीकार करते हैं ! बताओ । जब कि पक्षस्वरूप प्रतिज्ञाका त्याग प्रतिज्ञाहानिमें है और प्रतिज्ञान्तरमें भी कोई अन्तर नहीं है, तो फिर नैयायिकोंकरके प्रतिज्ञान्तर न्यारा निग्रहस्थान मान लिया गया है । इस बातपर हमको बडा आश्चर्य आता है।
प्रतिदृष्टांतधर्मस्य स्वदृष्टांतेभ्यनुज्ञया । यथा पक्षपरित्यागस्तथा संधांतरादपि ॥ १३९ ॥ स्वपक्षसिद्धये यद्वत्संधांतरमुदाहृतं । भ्रांत्या तद्वच्च शरोपि नित्योस्त्विति न किं पुनः ॥ १४०॥ शद्वानित्यत्वसिद्धयर्थं नित्यः शब्द इतीरणं । स्वस्थस्य व्याहतं यद्वत्तथाऽसर्वगशद्ववाक् ॥ १४१ ॥
नैयायिकोंके यहां जिस प्रकार प्रतिकूल दृष्टान्तके धर्मकी स्वकीय दृष्टान्तमें अनुमति देदेनेसे वादीके पक्षका परित्याग ( प्रतिज्ञाहानि ) हो जाता है, उसी प्रकार प्रतिज्ञान्तरसे भी वादीके पक्षका परित्याग हो जाता है । तथा जिस ही प्रकार वादीने अपने पक्षकी सिद्धिके लिये भ्रमके