Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोक वार्तिके
यसे चले आ रहे सूत्र हैं। वे ही युक्ति और आगमसे विरोध नहीं पडने के कारण आप्तोप हैं। अतः प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानका प्रतिपादक सूत्र और उसका वार्त्तिक या भाष्यमें किया गया व्याख्यान निर्दोष नहीं है ।
अत्र धर्मकीर्तेर्दूषणमुपदर्श्य परिहरन्नाह ।
अब यहां बौद्धगुरु धर्मकीर्तिके द्वारा दिये गये दूषणको दिखलाकर श्री विद्यानन्द आचार्य उस दोषका परिहार करते हुये स्पष्ट व्याख्यान करते हैं, सो सुनिये ।
यस्त्वाद्रियकत्वस्य व्यभिचाराद्विनश्वरे ।
शब्दे साध्ये न हेतुत्वं सामान्येनेति सोप्यधीः ॥ १२१ ॥ सिद्धसाधनतस्तेषां संधाहानेश्च भेदतः । साधनं व्यभिचारित्वात्तदनंतरतः कुतः ॥ १२२ ॥ सास्त्येव हि प्रतिज्ञानहानिर्दोषः कुतश्चन । कस्यचिन्निग्रहस्थानं तन्मात्रात्तु न युज्यते ॥
१२३ ॥
यहां जो धर्मकीर्ति बौद्ध यों कह रहा है कि शब्दको (में) विनश्वरपना साध्य करनेपर ऐन्द्रिकत्व हेतुका सामान्य पदार्थकरके व्यभिचार हो जाने से वह ऐन्द्रियकत्व हेतु समीचीन नही है । व्यभिचारी हेत्वाभास है । इस प्रकार कह रहा वह धर्मकीर्ति भी बुद्धिमान नहीं है । क्योंकियों कहनेपर तो उन मैयायिक विद्वानोंके यहां सिद्धसाधन हो जावेगा । अर्थात् - धर्मकीर्ति के ऊपर नैयायिक सिद्धसाधन दोष उठा सकते हैं । प्रतिज्ञाहानि नामक दोषसे भेद होनेके कारण वादीका हेतु किसी भी कारण से उसके अव्यवहित कालमें व्यभिचारी भी हो जाय तो इसमें नैयायिकों की कोई क्षति नहीं है । एतावता वह प्रतिज्ञाहानि दोष तो किसी न किसी कारणसे है ही । किन्तु कर देना तो युक्ति
• बात यह है कि केवल उस प्रतिज्ञाहानिसे ही किसी भी वादीका निग्रहस्थान
पूर्ण नहीं है ।
येषां प्रयोगयोग्यास्ति प्रतिज्ञानुमितीरणे । तेषां तद्वानिरप्यस्तु निग्रहो वा प्रसाधने ॥ १२४ ॥ परेण साधिते स्वार्थे नान्यथेति हि निश्चितं । स्वपक्षसिद्धिरेवात्र जय इत्याभिधानतः ॥ १२५ ॥