Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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शब्दोऽसर्वगतस्तावदिति सन्धांतरं कृतम् । तच तत्साधनाशक्तमिति भाष्ये न निग्रहः ॥ १३०॥
शब्द अनित्य है ऐन्द्रियिक होमेसे पटके समान, इस प्रकार वादीके कहनेपर प्रतिवादीद्वारा अनित्यपनेका निषेध किया गया । ऐसी दशामें वादी कहता है कि जिस प्रकार घट असर्वगत है, उसी प्रकार शब्द भी अव्यापक हो जाओ और उस ऐन्द्रियक सामान्यके समान यह शब्द भी नित्प हो जालो । इस प्रकार धर्मकी विकल्पना करनेसे ऐन्द्रियिकत्व हेतुका सामान्य नामको धारनेवाली जाति करके व्यभिचार हो जानेपर मी वादीद्वारा अपनी पूर्वकी प्रतिज्ञाकी प्रसिद्धिके लिये शब्दके सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया गया कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाओ । इस प्रकार वादीने दूसरी प्रतिज्ञा की । किन्तु वह दूसरी प्रतिज्ञा तो उस अपने प्रकृत पक्षको साधनेमें समर्थ नहीं है। इस प्रकार भाष्यप्रन्थमें वादीका निग्रह होना माना जाता है । किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नहीं है। भावार्थ-दृष्टान्त-घट और प्रतिदृष्टान्त सामान्यके सधर्मापनका योग होनेपर धर्ममेदसे यों विकल्प उठाया जाता है कि इन्द्रियोंसे ग्राह्य सामान्य सर्वव्यापक है, और इन्द्रियों से ग्राह्य घट अल्पदेशी है। ऐसे धर्मविकल्पसे अपनी साध्यकी सिद्धि के लिये वादी दूसरी प्रतिज्ञा कर बैठता है कि यदि घट असर्वगत है, तो शब्द भी घटके समान अव्यापक हो जाओ । इस प्रकार वादीका निन्ध प्रयत्न उसका निग्रहस्थान करा देता है । आचार्य महाराज आगे चलकर इसका निषेध दूसरे ढंगसे करेंगे ।
अनित्यः शब्दः ऐंद्रियकत्वाद्घटवदित्येक: सामान्यमैंद्रियकं नित्यं कस्मान तथा शब्द इति द्वितीयः । साधनस्थानकांविकत्वं सामान्येनोद्भावयति तेन प्रतिज्ञातार्थस्य प्रतिषेधे सति तं दोषमनुदरन् धर्मविकल्पं करोति, सोयं शब्दोऽसर्वगतो घटवदाहोस्वित्सर्वगतः सामान्यवदिति ? यद्यसर्वगतो पटवत्तदा तद्वदेवानित्योस्त्विति ब्रूते । सोयं सर्वगतत्वासर्वगतत्वधर्मविकल्पातदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञांतरं अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञातोऽसर्वगतो अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञाया अन्यत्वात् । तदिदं निग्रहस्थानं साधनसामर्थ्यापरिज्ञानाद्वादिनः । न चोचरपतिज्ञापूर्वप्रतिज्ञां साधयत्यतिप्रसंगात् इति परस्याकृतं ।
__ शब्द ( पक्ष ) अनित्य है ( साध्य ) बहिरंग इन्द्रियोंद्वारा ग्राह्य होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( अन्वय दृष्टान्त ) इस प्रकार कोई एक वादी कह रहा है । तथा इन्द्रियजन्य ज्ञानोंसे ग्रहण करने योग्य सामान्य यदि नित्य है तो क्यों नहीं शब्द भी तिस ही प्रकार नित्य हो जावे, इस प्रकार दूसरा प्रतिवादी कह रहा है । वह वादीके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका सामान्य करके व्यभिचार दोष हो जानेको उठा रहा है। ऐसी दशामें वादीके प्रतिज्ञात अर्थका उस प्रतिवादीद्वारा निषेध हो जाने पर वादी उस व्यभिचार दोषका तो उद्धार नहीं करता है। किन्तु एक न्यारे धर्मके विकल्पको कर