Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यशोकवार्तिके
जिस प्रकार उत्तर उत्तरवर्तिनी संख्या यथायोग्य चली आरही पूर्व पूर्वकी संख्याओंमें नहीं अनुवर्तन की जा रही है, तिसी प्रकार उत्तरवर्ती नय तो पूर्ववर्ती नयोंके परिपूर्ण विषयमें सदा नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे कि पांचसौमें पूरे आठसौ नहीं रहते हैं, केवल आठसौमें सहस्त्र रुपये नहीं ठहर पाते हैं, उसी प्रकार पूर्व नयों के व्यापक विषयोंमें अल्पग्राहिणी उत्तरवर्ती नयें नहीं प्रवर्त पाती है। यहां वैशेषिकोंके द्वारा माने गये अवयवोंमें अवयवीकी वृत्तिके समान पूर्व संख्यामें उत्तर संख्याको नहीं धरना चाहिये। क्योंकि केवल पहली संख्यामें पूरी उत्तरसंख्या नहीं ठहर पाती है। अपने पूरे अवयवोंमें एक अवयी ठहर जाता है । अतः दृष्टान्त विषम है।
प्रमाणनयानामपि परस्परविषयगमनविशेषेण विशेषितश्चेति शंकायामिदमाह ।
पुनः किसीकी आशंका है कि यों तो प्रमाण और नयोंका भी परस्परमें विषयों के गमनकी विशेषता करके कोई विशेष प्राप्त हो चुका होगा ! बताओ । इस प्रकार आशंका होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य इस बातको स्पष्ट रूपसे कहते हैं।
नयार्थेषु प्रमाणस्य वृत्तिः सकलदेशिनः । भवेन तु प्रमाणार्थे नयानामखिलेषु सा ॥ १०१ ॥
सकल वस्तुका आदेश कर जतानेवाले प्रमाणकी प्रवृत्ति तो नयों द्वारा गृहीत किये गये अर्थोंमें अवश्य होवेगी। किन्तु नयोंकी वह प्रवृत्ति इस प्रमाणद्वारा गृहीत अर्थोंमें संपूर्ण अंशोंमें नहीं होगी। जब कि प्रमाणद्वारा अभेदवृत्ति करके वस्तुके सम्पूर्ण अंशोंको जान लिया गया है । और नयोंद्वारा वस्तुके एक अंश या कतिपय अंशोंको ही जाना गया है, ऐसी दशामें व्यापकग्राही प्रमाण तो नयोंके विषयमें प्रवृत्ति कर लेता है। किन्तु नये प्रमाणगृहीत समी अंशोंको स्पर्श नहीं कर पाती हैं। एक बात यह भी है कि नय जिस प्रकार अन्तस्तलस्पर्शी होकर वस्तुके अंशको जता देता है, उस ढंगसे प्रमाणकी या श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं है। तभी तो प्रमाण, नय, दोनोंको स्वतंत्रतासे अधिगमका करण माना गया है । फांस निकालने के लिये छोटी चीमटी जैसा कार्य करती है, वह काम बडे चीमटासे नहीं हो सकता है । घरके भीतर गुप्त भागमें रखे हुये रुपया सुवर्ण, रत्न आदि धनको प्रकाशनेके लिये जितना अच्छा कार्य दीपकसे हो सकता है, उतना सूर्य से नहीं हो सकता है। हां, केवलज्ञानकी बात न्यारी है। फिर भी कहना पडता है कि छोटे बच्चोंको गोदमें बैठानेसे जो वात्सल्यरस उद्भूत होता है, वह परिपूर्ण युवा या बुढा बुढीको गोदमें बैठाल लेनेसे नहीं आता । अविचारक ज्ञानोंमें युगपत् सबको जाननेवाले केवलज्ञानकी प्रशंसा है। किन्तु विचार करनेवाले ज्ञानोंमें नयज्ञानोंकी प्रतिष्ठा है।
किमेवं प्रकारा एव नयाः सर्वेप्यास्तद्विशेषाः संति ? अपरेपीत्याह ।