Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
करना तो जल्पमें भी पाया जाता है । अतः " वाद एव " वाद ही इस प्रकार किये गये एवकार द्वारा अवधारणस्वरूप नियमका विरोध होगा। यानी पक्षमें हमारे द्वारा डाग गया एवकार व्यर्थ पडेगा । व्यभिचार दोष भी हो जायगा । अतः उसके परिहारके लिये प्रमाण या तर्कोसे सिद्धि करना, उलाहने देना, सिद्धान्तसे अविरुद्ध होना, आदिक विशेषण हेतुके दिये गये हैं। जब कि जल्पमें वह प्रमाण, तोसे साधन, उलाहना देना आदि विशेषण नहीं हैं। क्योंकि गौतमजीने न्यायसूत्रमें तुम्हारे यहां यों कहा है कि यथायोग्य ऊपर कहे गये वादके लक्षणसे युक्त होय किन्तु छळ ( कपट ) जाति (असत् उत्तर) और निग्रहस्थानों करके साधना और उलाहने जहां दिये जाय वह जल्प है । अर्थात्-जल्प नामक शास्त्रार्थमें प्रमाण या तोंसे साधन और उलाहने नहीं होते हैं। मळे ही अपने अपने मनमें कल्पित कर लिये प्रमाण तर्कोसे साधन और उपालम्भ दे दिया जाय, किन्तु छल आदिक करके जहां स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण उठाये जाते हैं वह जल्प है। अतः हमारा हेतु व्यभिचारी नहीं है। पक्षमें एवकार लगाना उपयुक्त पड गया। तथा वितंडा भी तिस ही कारणसे यानी हेतुके विशेषण नहीं घटित होनेसे तिस प्रकार तत्त्वाध्यवसायोंका संरक्षक नहीं हो सकता है । अर्थात्-वितंडामें तिस प्रकार वाद बन जानेका प्रसंग नहीं हो सकता है । वह तत्त्वनिर्णयका रक्षक भी नहीं है, जो कि नैयायिकोंने मान रखा है। क्योंकि पक्ष और प्रतिपक्षके परिग्रहसे रहित वह वितंडा है । अतः जल्प और वितंडाका तिरस्कार कर वाद ही तत्त्व निर्णयका संरक्षण करनेवाला सम्मवता है।
पक्षपतिपक्षौ हि वस्तुधर्मावेकाधिकरणी विरुद्धौ एककालावनवसितौ वस्तुविशेषौ वस्तुनः सामान्येनाधिगतत्वाच विशेषावगमनिमिचौ विवादः। एकाधिकरणाविति नानाधिकरणौ विचारं न प्रयोजयत उभयोः प्रमाणेनोपपत्तेः । तद्यथा अनित्या बुद्धिनित्य
आत्मेति अविरुद्धावप्येवं विचारं न प्रयोजयतः । तद्यथा क्रियावद्रव्यं गुणवच्चेति विरुद्धौ। तावुक्तौ । तथाभिन्नकालौ न विवादाही यथा क्रियावद्व्यं नि:क्रियं च कालभेदे सतीत्येककालावित्युक्तं । तथावसितौ विचारं न प्रयोजयेते निश्चयोत्तरकालं विवादाभावादि. त्यनवसितौ निर्दिष्टौ । एवं विशेषणविशिष्टयोधर्मयोः पक्षपतिपक्षयोः परिग्रह इत्थंभावनियमः। एवं धर्मायं धर्मी नैवं धर्मेति वा सोऽयं - पक्षपतिपक्षपरिग्रहो न वितंडायामस्ति सप्रतिपक्षस्थापनाही नो वितंडा इति वचनात् । तथा यथोक्तो जल्पः प्रतिपक्षस्थापनाहीनतया विशेषितो वितंडात्वं प्रतिपद्यते । वैतंडिकस्य च स्वपक्ष एव साधनवादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षी हस्तिपतिहस्तिन्यायेन स च वैतडिको न साधनं वक्ति केवलं परपक्षनिराकरणायैव प्रवर्तत इति व्याख्यानात् ।