Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचोकवार्तिके
सत्साधनवचः पक्षो मतः साधनवादिनः । सद्दषणाभिधानं तु स्वपक्षः प्रतिवादिनः ॥ ६५ ॥ इत्ययुक्तं द्वयोरेकविषयत्वानवस्थितेः । स्वपक्षप्रतिपक्षत्वासंभवाद्भिन्नपक्षवत् ॥ ६६ ॥
साधनवादीका पक्ष श्रेष्ठ साधनका कथन करना माना गया है। और प्रतिवादीका निजपक्ष तो समीचीन दूषणका कथन करना इष्ट किया गया है । इस प्रकार किसीका कथन करना न्याय्य नहीं है । क्योंकि दोनोंके एक विषयपनेकी व्यवस्था नहीं है । अतः स्त्रपक्षपन प्रतिपक्षपनका असम्भव है । जैसे कि सर्वथा भिन्न हो रहे पक्षों में स्त्रपक्षपनकी व्यवस्था नहीं है । अर्थात् सिद्धि किसीकी की जा रही है और दूषण कहीं का भी उठाया जा रहा है। ऐसी दशा में स्वपक्षपनेका प्रतिपक्षपनेका निर्णय करना कठिन है । जैसे कि नैयायिकोंका प्रतिवाद करनेपर आत्माके व्यापकपनका जैन खण्डन कर देते हैं । किन्तु तितने से उनका पक्ष यह नहीं प्रतीत हो पाता है कि जैन आत्माको अणुपरिमाणवाला मानते हैं, या मध्यमपरिमाणवाला स्वीकार करते हैं, अथवा आत्मा उपात्त शरीर के बरोबर है, अंगुष्ठमात्र है । या समुद्घात अवस्था में और भी लम्बा चौडा हो जाता है, कुछ निर्णय नहीं । तथा मीमांसकों द्वारा शब्द के अनित्यत्वका खण्डन करनेके अवसरपर वादी नैयायिकों के अनित्य शब्दका यह पता नहीं
ग पाता है कि नैयायिक शब्दको कालान्तरस्थायी अनित्य मानते हैं ? या दो क्षणतक ठहरनेवाला स्वीकार करते हैं ? या बौद्धोंके समान एक क्षणतक ही शब्दका ठहरना बताते हैं ? कुछ पता नहीं चलता है । दूसरी बात यह है कि बौद्धोंके मत अनुसार पक्ष के लक्षणका निर्णय नहीं हो सका है । इस कारण से भी पक्ष प्रतिपक्षका असम्भव है ।
वस्तुन्येकत्र वर्तेते तयोः साधनदूषणे ।
तेन तद्वचसोर्युक्ता स्वपक्षेतरता यदि ॥ ६७ ॥ तदा वास्तवपक्षः स्यात्साध्यमानं कथंचन । दृष्यमाणं च निःशंकं तद्वादिप्रतिवादिनोः ॥ ६८ ॥
रहे हैं । तिस
एक वस्तु दोनों वादी, प्रतिवादियोंके साधन करना और दूषण देना प्रवर्त कारणसे उनके वचनों में स्वपक्षपना और प्रतिपक्षपना युक्त हो जायगा । यदि बौद्ध यों कहेंगे तब तो वादीके द्वारा कैसे न कैसे ही साधा जा रहा और प्रतिवादीके द्वारा शंका रहित होकर दूषित किया जा रहा वस्तु ही वास्तविक पक्ष उन वादी प्रतिवादियोंका सिद्ध हो जाता है ।