Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तत्त्वार्थनिश्चये हेतोदृष्टान्तोऽनर्थको न किम् । सदृष्टान्तप्रयोगेषु प्रविभागमुदाहृताः ॥ ७७ ॥
प्रतिज्ञावाक्यसे ही अर्थकी सिद्धि हो चुकनेपर पुनः हेतु आदिकका वचन करना वृथा पडेगा अन्यथा उस प्रतिज्ञाको साध्यसिद्धिका अंगपना नहीं घटित होता है। जिस ही प्रकार बौद्ध यों कहते हैं, उस ही प्रकार हम कटाक्ष कर सकते हैं कि हेतुसे ही तत्त्वार्थोका निश्चय हो जानेपर पुनः दृष्टान्तका कथन करना व्यर्थ क्यों नहीं पडेगा ! किन्तु समीचीन दृष्टान्तोंसे सहित हो रहे प्रयोगोंमें विभाग सहित साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्तोंको कहा गया है।
सतोSतिविपरीतव्यतिरेकत्वं प्रदर्शितव्यतिरेकत्वमिति । न च वैधर्म्यदृष्टांतदोषाः क्वचिन्न्यायविनिश्चयादौ प्रतिपाद्यानुरोधतः सदृष्टांतेषु सत्पयोगेषु सविभागमुदाहृतान पुनः साधनांगत्वानियमात् । तदनुद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रहाधिकरणं वादिना स्वपक्षस्यासाधनेपीति ब्रुवाणः सौगतो जडत्वेन जडानपि छलादिना व्यवहारतो नैयायिकान् जयेत् । किं च । - वैधर्म्य दृष्टान्तका निरूपण करनेके लिये व्यतिरेक दिखलाना पडता है। उस साध्यरूप अर्थसे अतिरिक्त हो रहे विपरीतके साथ व्यतिरेकपना बतला देना ही व्यतिरेकपनका दिखला देना है। इस प्रकार दिये गये वैधर्म्य दृष्टान्तके दोष किन्हीं " न्यायविनिश्चिय, जल्पनिर्णय " आदि ग्रन्थों में प्रतिपाद्योंके अनुरोधसे दृष्टान्तसहित समीचीन प्रयोगोंमें विभागसहित भहें ही नहीं कहे गये होय, किन्तु फिर साधनांगपनेके अनियमसे उन दोषोंका निरूपण नहीं किया गया है। अर्थात्-कोई प्रामाणिक ग्रन्थोंमें श्री अकलंकदेवने वैधर्म्य दृष्टान्त या साधर्म्य दृष्टान्तका कथन . करना बताया है । तथा उनके दोषोंका भी निरूपण किया है। यह साधनांगपमेके अनियमसे व्यवस्था नहीं की गयी है । प्रतिपायोंके अनुरोधसे चाहे कितने भी अंगोंको कहा जा सकता है। वादीके द्वारा स्वपक्षकी सिद्धि नहीं किये जानेपर मी यदि उन दोषोंका नहीं उठाना प्रतिवादीका निग्रहस्थान हो जाता है, इस प्रकार कह रहा बौद्ध तो अपने जडपनेसे उन जड नैयायिकोंको जीत रहा है । जो कि छळ, जाति, आदि करके विद्वानोंमें वचन व्यवहार किया करते हैं। अर्थात्-वानवान् आत्माको नहीं माननेवाले बौद्ध जड हैं । और ज्ञानसे सर्वथा भिन्न मामाको माननेके कारण नैयायिक जड हैं । नैयायिक तो छल आदि करके जीतनेका अभिप्राय रखता है। किन्तु बौद्ध तो यों ही परिश्रम किये बिना वादीको जितना चाहता है । मला स्वपक्ष सिद्धिके विना जीत केसे हो सकती है ! विचारो तो सही। यहांकी पंक्तियोंका विशेषज्ञ विद्वान् गवेषणापूर्वक विचार कर लेवें। मैंने स्वकीय अल्प क्षयोपशम अनुसार लिख दिया है। श्री विद्यानन्द आचार्य यहां दूसरी बात यह भी कहते हैं कि
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