Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
अनुमति दे देता है तो वह अपनी पूर्वमें की गयी प्रतिज्ञाको छोड देता है। इस कारण यह वादीका प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान है। जैसे कि शब्द अनित्य है (प्रतिज्ञा) इन्द्रिय जन्य ज्ञान करके ग्रहण करने योग्य होनेसे ( हेतु ) घटके समान ( अन्वयदृष्टान्त ), इस प्रकार वादी कह रहा है। ऐसी दशामें दूसरे प्रतिवादी करके यों प्रत्यवस्थान दिया गया यानी वादीको प्रतिकूल पक्ष पर अवस्थित करनेके लिये दोष उठाया गया कि नित्य होकर अनेकोंमें समवाय सम्बन्धसे वर्त रहा सामान्य पदार्थ देखो । इन्द्रियनन्य ज्ञान द्वारा देखा जा रहा है। जब यह सामान्य नित्य है तो तिस ही प्रकार शब्द भी नित्य क्यों नहीं हो जावे ! इस प्रकार कटाक्ष युक्त कर दिया गया वादी अपने द्वारा प्रयुक्त किये गये ऐन्द्रियकत्व हेतुके व्यभिचारी हेत्वाभासपनेको जानता हुआ भी वाद कथाके अन्तको नहीं करता हुआ स्वकीय निश्चयका उल्लंघन कर यो प्रतिज्ञाका त्याग कर देता है कि इन्द्रियजन्य ज्ञानसे जाना जा रहा सामान्य यदि नित्य है तो घट भी भले ही नित्य हो जाओ। हमारा क्या बिगडता है ? निश्चयसे इस प्रकार कह रहा सो यह वादी हेतुसे सहित हो रहे दृष्टान्तके निस्यपनका प्रसंग कराता हुआ और निगमन पर्यन्त ही पक्षको छोड रहा संता प्रतिज्ञाका त्याग कर रहा है, यह कहा जाता है, क्योंकि पक्षके आश्रय प्रतिज्ञा है। इस प्रकार भाष्यकार वात्स्यायनका लम्बा चौडा मन्तव्य उक्त ग्रन्थ द्वारा चारों ओरसे छिन मिन्न कर वखेर दिया गया आचार्य महाराजने दिखला दिया है।
प्रतिज्ञाहानिसूत्रस्य व्याख्यां वार्तिककृत्पुनः । करोत्येवं विरोधेन न्यायभाष्यकृतः स्फुटम् ॥ ११४ ॥ दृष्टश्चांते स्थितश्चायमिति दृष्टांत उच्यते । खदृष्टांतः स्वपक्षः स्यात् प्रतिपक्षः पुनर्मतः ॥ ११५॥ प्रतिदृष्टांत एवेति तद्धर्ममनुजानतः । वपक्षे स्यात्प्रतिज्ञानमिति न्यायाविरोधतः ॥ ११६ ॥ सामान्यमैंद्रियं नित्यं यदि शदोपि तादृशः । नित्योस्त्विति बुवाणस्यानित्यत्वत्यागनिश्चयात् ॥ ११७ ॥
न्यायवार्तिक प्रन्थको करनेवाळे " उद्योतकर " पण्डितजी प्रतिज्ञाहानिके प्रतिपादक लक्षणसूत्रकी व्याख्याको न्यायभाष्यकार वात्स्यायनका विरोवकरके यों स्पष्टरूपसे करते हैं । अर्थात्"प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः” इस सूत्रका अर्थ जो न्यायभाष्यकारने किया है, वह ठीक नहीं । किन्तु उसके विरुद्ध इस प्रकार उसका तात्पर्य है कि देखा हुआ होता संता जो