Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
वाला बादी अपने दृष्टान्त घटका नित्यपन स्वीकार करता हुआ निगमन पर्यन्त पक्षको छोड दे रहा प्रतिज्ञाकी हामि कर देता है । इस ढंगसे सूत्रका भाष्य कह रहे वात्स्यायनके द्वारा भला प्रतिज्ञाहानि कैसे उपजाई जाती है ! " प्रतिज्ञा हाप्यते कथं " पाठ अच्छा दीखता है। भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि वादीने प्रतिदृष्टान्तके धर्मको स्वदृष्टान्तमें स्वीकार कर लिया है। प्रतिज्ञाको तो नहीं छोडा है ऐसी दशामें यह प्रतिज्ञाहानि भला कहां रही ? नैयारिकोंने ऐन्द्रियक पदार्थोंमें रहनेवाले जातिका भी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष होना अमीष्ट किया है।
दृष्टांतस्य परित्यागात्स्वहेतोः प्रकृतक्षतेः । निगमांतस्य पक्षस्य त्यागादिति मतं यदि ॥ १०८ ॥ तथा दृष्टांतहानिः स्यात्साक्षादियमनाकुला। . साध्यधर्मपरित्यागाद् दृष्टांते स्वेष्टसाधने ॥ १०९ ॥
यदि भाष्यकार वात्स्यायमका मन्तव्य यों होय कि " न खल्वयं ससाधनस्य दृष्टान्तस्य नित्यत्वं प्रसज्जयनिगमनान्तमेव पक्षं जहाति पक्षं महत् प्रतिज्ञां जहातीत्युच्यते प्रतिज्ञाश्रयत्वात् पक्षस्पेति " यह साधन बादी हेतुसे सहित हो रहे घट दृष्टान्तके नित्यपनेके प्रसंगको स्वीकार करता हुआ निगमनपर्यन्त ही पक्षको छोड देता है । यही नहीं समझना, किन्तु पक्षका परित्याग करता हुषा प्रतिज्ञाकी हानि कर देता है। क्योंकि पक्षके आश्रयपर प्रतिज्ञा उठी रहती है। पक्षके छूट जानेपर प्रतिज्ञा छूट जाती है। भाष्यकार मानते हैं कि दृष्टान्तका परित्याग होजानेसे अपने हेतुसे प्रकरणप्राप्त साध्यको क्षति हो जाती है। अतः निगमनपर्यन्त पक्षका त्याग हो जानेसे यह प्रतिज्ञाहानि है । अर्थात्-दृष्टान्तकी हानि हो जानेसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, पांचोंकी हानि हो जाती है । अब आचार्य कहते हैं कि तब तो साक्षात् आकुलता रहित होती हुई यह दृष्टान्तकी हानि होगी। क्योंकि अपने इष्ट साधनद्वारा साध लिये गये घटरूपी दृष्टान्तमें ही अनित्यत्वरूप साध्य धर्मका परित्याग कर दिया गया है। प्रतिज्ञाका तो त्याग नहीं किया है। अर्थात्-इसको प्रतिज्ञाहानि नहीं कहकर दृष्टान्तहानि कहना चाहिये था।
पारंपर्येण तु त्यागो हेतूपनययोरपि । र उदाहरणहानी हि नानयोरस्ति साधुता ॥ ११ ॥
निगमस्य परित्यागः पक्षबाधेपि वा स्वयं । तथा च न प्रतिज्ञातहानिरेवेति संगतत् ॥ १११ ॥