Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तस्वार्थचिन्तामणिः
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अप्राप्तकाल १० पुनरुक्त ११ अननुभाषण १२ अज्ञान १३ अप्रतिमा १४ पर्यनुयोग्यानुपेक्षणं १५ निरनुयोज्यामुयोग १६ विक्षेप १७ मतानुज्ञा १८ न्यून १९ अधिक २० अपसिद्धान्त २१ हेत्वाभास २२ छळ २३ जाति २४ इस प्रकार हैं । नैयायिकोंने प्रमाण, प्रमेय, आदि सोलह मूल पदार्थ माने हैं। उनमें हेत्वाभास, छल, और जाति पदार्थ भी परिगणित हैं । छल और जातिका पृथक् व्याख्यान कर तथा हेत्वाभासको निग्रहस्थानोंके प्रतिपादक सूत्रमें गिमा देनेसे निग्रहस्थान बाईस समझे जाते हैं। इनके लक्षणोंका निरूपण स्वयं ग्रन्थकार अग्रिम प्रन्थमें करेंगे। उन निग्रहस्थानोंमें पहिले नैयायिकों द्वारा कहा गया प्रतिज्ञाहानि नामक निग्रहस्थान किस प्रकार अयुक्त है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी इस प्रकार समाधान कहते हैं ।
प्रतिदृष्टांतधर्मस्य यानुज्ञा न्यायदर्शने । स्वदृष्टांते मता सैव प्रतिज्ञाहानिरैश्वरैः ॥ १०२ ॥
सृष्टिके कर्ता ईश्वरकी उपासना करनेवाले नैयायिकोंने अपने गौतमीय न्यायदर्शनमें प्रतिज्ञाहानिका लक्षण यों माना है कि अपने दृष्टान्तमें प्रतिकूल पक्ष सम्बन्धी दृष्टान्तके धर्मकी जो स्वीकारता कर लेना है वही प्रतिज्ञाहानि है । इसका व्याख्यान स्वयं ग्रन्थकार करेंगे।
प्रतिदृष्टांतधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिरित्यक्षपादवचनात् । एवं सूत्रमनूय परीक्षणार्थे भाष्यमनुषदति ।
गौतम ऋषिके बनाये हुये न्यायदर्शनके पांचवे अध्यायका दूसरा सूत्र अक्षपादने यों कहा है कि " प्रतिदृष्टान्तधर्मानुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः " इस प्रकार गौतमके सूत्रका अनुवाद कर गौतमसूत्रपर वात्स्यायनऋषि द्वारा किये गये भाष्यकी परीक्षा करनेके लिये श्री विद्यानन्द स्वामी अनुवाद करते हैं। गौतम ऋषिका ही दूसरा नाम अक्षपाद है। न्यायकोषमें अक्षपादकी कथामें यों लिखी हुई है कि गौतमने अपने द्वैत प्रतिपादक मतका खण्डन करनेवाले वेदव्यासके आंखोंसे नहीं दर्शन करने (देखने) की प्रतिज्ञा लेली थी । किन्तु कुछ दिन पश्चात अद्वैतवादका आदरणीय रहस्य गौतमको प्रतीत हुआ तो वे वेदव्यासका दर्शन करनेके लिये आकुलित हुये। किन्तु प्रतिज्ञा अनुसारसे वदनस्थित चक्षुषोंसे व्यासजीका दर्शन नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने तपस्याके बळसे पांवोंमें चक्षु बनाई। इन चक्षुओंसे व्यासका दर्शन किया "अक्षिणी अथवा अक्षे पादयोः यस्य स बक्षपाद:" इस प्रकार अक्षपाद शद्धका व्यधिकरण बहुव्रीहि समास किया है । यह केवळ किम्बदन्ती है । जैन सिद्धान्त अनुसार विचारा जाय तो पांवोंमे आंखे नहीं बन सकती हैं। आंखोंकी निर्वृत्ति और उपकरण वदनप्रदेशमें ही सम्भवते हैं । यों देशावधि ( विमङ्ग ) से भले ही कोई अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कर ले, यह बात दूसरी है।
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