Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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कोई विशेषता नहीं है । जिस प्रकार हेत्वाभास यानी झूठे हेतुका प्रयोग करनेवाले वादीको ग्रहण किये गये स्वकीय पक्षका परिज्ञान नहीं है । तभी तो वह असत्य हेतुका प्रयोग कर गया है । तिसी प्रकार दोषको नहीं उठानेवाले प्रतिवादीको समीचीन दूषणका ज्ञान नहीं है । इस प्रकार अपने अपने कर्तव्य हो रहे तत्त्वज्ञानपूर्वक कथन करनेकी सामर्थ्यसे रहितपना दोनोंके समान है।
जानतोपि सभाभीतेरन्यतो वा कुतश्चन । दोषानुद्धावनं यद्वत्साधनाभासवाक् तथा ॥ ८१॥
यदि कोई प्रतिवादीका पक्षपात करता हुआ यों कहें कि अनेक विद्वानोंकी सभाका डर लग जानेसे अथवा अन्य किसी भी कारणसे प्रतिवादी दोषोंको जामता हुआ भी वादीके हेतुमें दोष नहीं उठा रहा है । इस कटाक्षका अन्य विद्वान् टकासा उत्तर देते हुये यों निवारण कर देते हैं कि जिस प्रकार प्रतिवादीके लिये यह पक्षपात किया जाता है, उसी प्रकार वादीके लिये भी पक्षपात हो सकता है कि वादी विद्वान् समीचीन हेतुका प्रयोग कर सकता था। किन्तु सभाके डरसे अथवा उपस्थित विद्वानोंकी परीक्षणा करनेके अभिप्रायसे या सदोष हेतुसे भी निर्बल पक्षकी सिद्धि कर देनेका पाण्डित्य प्रदर्शन करनेके आदि किसी भी कारणसे वह वादी हेत्वाभासका निरूपण कर रहा है। इस प्रकार तो दोनोंके तत्वज्ञानपूर्वक कथन करनेकी सामर्थ्यका निर्वाह किया जा सकता है।
दोषानुद्भावने तु स्याद्वादिना प्रतिवादिने । परस्य निग्रहस्तेन निराकरणतः स्फुटम् ॥ ८२॥ अन्योन्यशक्तिनिर्घातापेक्षया हि जयेतर-। व्यवस्था वादिनोः सिद्धा नान्यथातिप्रसंगतः ॥ ८३॥
वादी करके प्रतिवादीके लिये दोषोंका उत्थापन नहीं करनेपर उस करके दूसरेका निग्रह तो स्पष्टरूपसे परपक्षका निराकरण कर देनेसे होगा, अन्यथा नहीं । अतः परस्परमें एक दूसरेकी शक्तिका विघात करनेकी अपेक्षासे ही वादी प्रतिवादियोंके जय और पराजयकी व्यवस्था सिद्ध हो रही है। अन्य प्रकारोंसे जय या पराजयकी व्यवस्था नहीं समझना । क्योंकि अतिप्रसंग दोष हो जावेगा । भावार्थ"अत्रान्ये " यहांसे लेकर पांच कास्किाओंमें अन्य विद्वानोंका मन्तब्य यह ध्वनित होता है कि जित किसी भी प्रकारसे वादी या प्रतिवादीकी शक्तिका विशेषघात हो जानेसे प्रतिवादी या वादीका जय मान लेना चाहिये।
इत्येतद्दर्विदग्धत्वे चेष्टितं प्रकटं न तु । वादिनः कीर्तिकारि स्यादेवं माध्यस्थहानितः ॥ ८४॥