Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यकोकवार्तिक
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अब आचार्य महाराज उक्त अन्य विद्वानोंके प्रति कहते हैं कि इस प्रकार यह अन्ध विद्वानोंका कथन करना तो अपने दुर्विदग्धपनेके निमित्त ही प्रकटरूपसे चेष्टा करना है। मळे प्रकार समझानेपर भी मिथ्या आग्रहवश अपने झूठे पक्षका कोरा अभिमान कर सत्यपक्षका ग्रहण नहीं करना दुर्विदग्धपना है। किसी भी अन्टसन्ट उपायसे प्रतिवादीकी शक्तिका विघात करना यह प्रयत्न तो बादीकी कीर्तिको करनेवाला नहीं है । इस प्रकार निध प्रयत्न करनेसे अन्य तटस्थ बैठे हुये सभ्य पुरुषों के मध्यस्थपनेकी भी हानि हो जाती है । अर्थात्-आंखमें अंगुली करना, मर्मस्थलोंमें बाघात पहुंचा देना, आदि अनुचित उपायोंसे युद्ध ( कुस्ती ) करनेवाले मल्ल या प्रतिमल्लको जैसे मध्यस्थ पुरुष निषिद्ध कर देते हैं, इसी प्रकार अयुक्त उपायोसे जय लूटनेवाळे वादीका मध्यस्थों द्वारा निकृष्ट मार्ग छुड़ा देना चाहिये था । यदि मध्यस्थ जन वादीके अनुचित अभिनय (तमाशा) को चुप होकर देख रहे हैं, ऐसी दशामें उन पक्षपातियोंके मध्यस्थपनकी हत्या हो जाती है।
दोषानुद्भावनाख्यानाद्यथा परनिराकृतिः। तथैव वादिना स्वस्य दृष्टा का न तिरस्कृतिः ॥८५॥
प्रतिवादी द्वारा दोषोंके नहीं उठाये जानेका कथन कर देनेसे जिस प्रकार दूसरे प्रतिवादीका निराकरण ( पराजय ) होना मान लिया गया है, उस ही प्रकार अपने मान लिये गये वादीका भी तिरस्कार हो रहा क्या नहीं देखा गया है ? क्योंकि वादीने समीचीन हेतु नहीं कहा था। यह वादीका तिरस्कार करनेके लिये पर्याप्त है।
दोषानुद्भावनादेकं न्यक्कुर्वति सभासदः । साधनानुक्तितो नान्यमित्यहो तेतिसजनाः ॥ ८६ ॥
प्राचार्य कहते हैं कि सभामें बैठे हुये मध्यस्थ पुरुष दोनों वादी प्रतिवादियोंमेंसे एक प्रतिबादीका तो न्यकार ( तिरस्कार ) कर देते हैं, किन्तु समीचीन साधनका नहीं कथन करनेसे दूसरे वादीका तिरस्कार नहीं करते हैं, ऐसी बुद्धपने की क्रिया करनेपर हमें उनके ऊपर आचर्य आता है। उपहाससे कहना पडता है कि वे सभ्य पुरुष आवश्यकतासे अधिक सज्जन है। यानी परम मूर्ख हैं। जो कि पक्षपातवश वादीके प्रयुक्त किये गये हेत्वाभासका लक्ष्य नहीं रखकर प्रतिवादीका दोष नहीं उठाने के कारण वादी द्वारा पराजय कराये देते हैं। ऐसे सभासदोंसे न्यायकी प्राप्ति होना बसम्भव है । सज्जनताका अतिक्रमण करनेवालोंसे निष्पक्ष न्याय नहीं हो पाता है।
अत्र परेषामाकूतमुपदर्य विचारयति ।
इस प्रकरणमें श्री विद्यानन्द आचार्य दूसरे विद्वानोंकी स्वमन्तव्यपुष्टिकी चेष्टाको दिखलाकर विचार करते हैं। सो सुनिये ।