Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
यद्वस्तु शब्दानित्यत्ववादिनां साध्यमानं वादिना, दृष्यमाणं व प्रतिवादिना तदेव वादिनः पक्षः शक्यत्वादिविशेषणस्य साधनविषयस्य पक्षध्वव्यवस्थापनात् । तथा यहूषणवादिना शद्बादि वस्तु अनित्यत्वादिना साध्यमानं वादिना दृष्यमाणंत देव प्रतिवादिनः पक्ष इति व्यवतिष्ठते न पुनः साधनवचनं वादिनः, दुषणवचनं च प्रतिवादिनः, पक्ष इति विवादाभावात्तयोस्तत्र विवादे वा यथोक्तलक्षण एव पक्ष इति तस्य सिद्धेरेकस्य जयोऽपरस्य पराजयो व्यवतिष्ठते, न पुनरसाधनांगवचनमात्रमदोषोद्भवानमात्रं वा । पक्षसिध्यविनाभावि - नस्तु साधनांगस्यावचनं वादिनो निग्रहस्थानं प्रतिपक्षसिद्धौ सत्यां प्रतिवादिन इति न निवार्यत एव । तथाहि ।
३३१
शद्वके नित्यपनको कहनेवाले मीमांसक वादियों के यहां जो वस्तु मीमांसक वादी करके साधी जा रही है और नैयायिक या बौद्ध प्रतिवादी करके वह शद्बका वस्तुभूत नित्यपना यदि दूषित किया जा रहा है तो वहीं वादीका पक्ष है। क्योंकि साठवीं वार्तिकके पीछे टीकामें शक्यपन, अप्रसिद्धपन आदि विशेषणसे युक्त हो रहे और ज्ञापक हेतुके विषय हो रहे को पक्षपनकी व्यवस्था की जा चुकी है। तथा जो शद्व आदिक वस्तु इस दूषणवादी नैयायिक प्रतिवादी करके अनित्यपन अव्यापकपन आदिक धर्मोसे युक्त साथी जा रही है और वादी मीमांसककरके दूषित की जा रही है वही तो प्रतिवादीका पक्ष है, यह व्यवस्था हो रही है । किन्तु फिर वादीका साधन वश्वन करना पक्ष है, और प्रतिवादीका दूषण उठानेका वचन करना पक्ष है, यह व्यवस्था कर देना ठीक नहीं है। क्योंकि उन दोनों वादी प्रतिवादियोंका उस साधनकथन या दूषणकथनमें कोई विवाद नहीं है । इस बातको बालक भी जानता है कि वादी अपने पक्षकी पुष्टि करेगा, प्रतिबादी उसमें दूषण लगायेगा । परन्तु ये पक्ष या प्रतिपक्ष कथमपि नहीं हो सकते हैं । यदि उन बादी प्रतिवादियोंका उसमें विवाद होने लगे तब तो यथायोग्य कहे गये लक्षणसे युक्त हो रहा ही पक्ष सिद्ध हुआ । इस कारण ऐसे उस पक्षकी सिद्धि हो जानेसे ही एकका जय और दोनोंमेंसे दूसरे एकका पराजय होना व्यवस्थित हो जाता है । किन्तु फिर केवल असाधनांगका कथन करदेना वादीका निग्रह और प्रतिवादीका विजय नहीं है । अथवा केवळ दोषोंका उत्थान नहीं करना ही प्रतिवादीका निग्रह और वादीका जय नहीं है । हां, पक्षसिद्धि के अविनाभावी हो रहे साधनांगका तो अवचन करना वादीका निग्रहस्थान है । यह प्रतिवादीके द्वारा अपने निज प्रतिपक्षकी सिद्धि होनेपर ही होगा । अतः इस तत्वका निवारण हमारे द्वारा नहीं किया जारहा ही है । उसी बातको श्री विद्यानन्द स्वामी स्पष्ट कर दिखलायें देते हैं ।
1
पक्षसिध्यविनाभावि साधनावचनं ततः ।
निग्रहो वादिनः सिद्धः स्वपक्षे प्रतिवादिनि ॥ ६९ ॥