Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
हेत्वाभासों के निवारण अर्थ हेतुके पांच अवयवोंका स्वीकार करना अत्यावश्यक है और अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन, इन पांच अवयवोंका मानना अनिवार्य है । ऐसी दशा में हेतुके तीन ही रूपोंका कथन या समर्थन करनेवाले बौद्धोंका नैयायिकों के मत अनुसार सर्वदा निग्रह होता रहेगा । इसी प्रकार कोई अन्य पण्डित यदि भागासिद्ध, आश्रयासिद्ध, प्रतिज्ञार्थैकदेशासिद्ध, अशक्यत्व, अनभिप्रेतत्व आदि दोषोंके दूर करनेके लिये हेतुके रूप पांचसे भी अधिक आठ, नौ कर दें, तब तो बौद्ध और नैयायिक, दोनों सदा निगृहीत होते रहेंगे । अपने मनमानी हेतुके अंगों की संख्याको गढकर यदि दूसरोंका निग्रह कराया जाय, तब तो बडी अव्यवस्था फैल जावेगी । यहां आचार्योंने बौद्धोंके अनुदात्त विचारोंका नैयायिकोंके मान्तव्य अनुसार निवारण कर दिया है । दूसरोंके मतके खण्डनका यह उपाय अच्छा है ।
ननु च न सौगतस्य पंचावयवसाधनस्य तत्समर्थनस्य वाडवचनं तत्र निगमनांतस्य सामर्थ्याद्गम्यमानत्वात् तद्वचनस्य पुनरुक्तत्वेना फलत्वादित्यपि न संगतमित्याह ।
बौद्ध अपने मतका अवधारण करते हैं कि पांच अवयववाले हेतुका अथवा उसके समर्थनका कथन नहीं करना कोई बौद्धका निग्रहस्थान नहीं है। क्योंकि वहां निगमनपर्यन्त अवयवोंका विना कहे तुकी सामर्थ्य से ही अर्थापत्तिद्वारा ज्ञान कर लिया जाता है । उस गम्यमानका भी यदि कथन किया जायगा तो पुनरुक्त हो जानेके कारण वह निष्फळ ( व्यर्थ ) पडेगा । अतः बौद्धोंके ऊपर नैयायिकों का कटाक्ष चल नहीं सकता है । अत्र आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धों का कहना भी पूर्वापर संगतिको लिये हुये नहीं है । इस बातका ग्रन्थकार वार्त्तिकद्वारा कथन करते हैं ।
सामर्थ्याद्गम्यमानस्य निगमस्य वचो यथा । पक्षधर्मोपसंहारवचनं च तथाऽफलम् ॥ ७४ ॥
जिस प्रकार कि समर्थित हेतुकी सामर्थ्य से बिना कहे हुये ही जाने जा रहे निगमन अवयव का कथन करना निष्फळ है, उसी प्रकार पक्षमें वर्त रहे हेतुके उपसंहाररूप उपनयका कथन करना भी अफल पडेगा । अर्थात् - बौद्धोंने उपनयका वचन स्थान स्थानपर किया है। यदि गम्यमानका कथन करना नैयायिकोंका व्यर्थ है, तो बौद्धोंके उपनयका कथन भी निरर्थक पडेगा । ऐसी दशामें बौद्धों के ऊपर पुनरुक्त या निरर्थक निग्रहस्थान उठाया जा सकता है।
ननु च पक्षधर्मोपसंहारस्य सामर्थ्याद्गम्यमानस्यापि हेतोरपक्षधर्मत्वेनासिद्धत्वस्य व्यवच्छेदः फलमस्तीति युक्तं तद्वचनमनुमन्यते यत्सत्तत्सर्व क्षणिकं यथा घटः संच शब्द इति । तर्हि निगमनस्यापि प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयानामेकार्थत्वोपदर्शनं फलमस्ति तद्वचनमपि युक्तिमदेवेत्याह ।