Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
पक्ष परार्थानुमानमें भी स्वीकार करना युक्त है । अपनेको हुये निश्चयके समान अन्य पुरुषोंको निश्चयकी उत्पत्ति करने के लिये विचारशाळी तार्किक पुरुषोंके द्वारा परार्थानुमानका प्रयोग किया जाता है | अतः यही पक्षका लक्षण ठीक है । अन्य प्रकारोंसे उस पक्षके लक्षणके करने में असम्भव अतिव्याप्ति आदि दोषोंकी प्राप्ति हो जानेका प्रसंग होगा ।
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का पुनः पक्षस्य सिद्धिरित्याह ।
पक्षका क्षण हम समझे, फिर अब यह बताओ कि पक्षकी सिद्धि क्या पदार्थ है ? इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य श्लोक वार्त्तिकद्वारा उत्तर कहते हैं ।
सभ्यप्रत्यायनं तस्य सिद्धिः स्याद्वादिनोथवा ।
प्रतिवादिन इत्येष निग्रहो न्यतरस्य तु ॥ ६२ ॥
समामें स्थित हो रहे प्राश्निकजनोंके प्रतिज्ञान कराते हुये वादीके उस उपर्युक्त पक्षकी जो सिद्धि होगी दोनोंमेंसे एक हो रहे प्रतिवादीका यही तो निग्रह होगा अथवा प्रतिवादीके उस प्रतिज्ञा रूप पक्षकी सभ्योंके सन्मुख सिद्धि हो जाना ही वादीका निग्रह हो जाना है ।
वादिनः स्वपक्षप्रत्यायनं सभायां स्वपक्षसिद्धि, प्रतिवादिनः स एव निग्रहः, प्रतिवादिनोथवा तत्स्वपक्षसिद्धिर्वादिनो निग्रह इत्येतत्प्रत्येयम् । तथोक्तं । 46 'स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहन्यस्य वादिनः । नासाधनांगवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः ।। " इति ।
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विद्वान् पुरुषोंसे भरी हुई सभा में अपने निजपक्षका ज्ञापन कराना ही वादीके स्वपक्षकी सिद्धि है । वही प्रतिवादीका निग्रह है । अथवा प्रतिवादीके उस अपने पक्षकी सिद्धि हो जाना ही वादीका निग्रह है यों वह विश्वास करने योग्य मार्ग है । उसी प्रकार प्रन्थोंमें कहा गया है कि वादी प्रतिवादियों में से एक के स्वपक्षकी सिद्धि हो जाना ही उससे भिन्न दूसरे वादीका निग्रह यानी पराजय है । वादी के लिये आवश्यक हो रहे साधनके अंगों का कथन करना यदि कथमपि नहीं हो सके तो एतावता ही वादीका निग्रह नहीं हो जाता है । जबतक कि दोनोंमेंसे एक हो रहे प्रतिवादी पक्षकी सिद्धि नहीं हो जाय अथवा प्रतिवादीके लिये आवश्यक बता दिया गया दोषोंका उठाना यदि कदाचित् नहीं भी हो सके तो इतनेसे ही प्रतिवादीका पराजय तबतक नहीं हो सकेगा, जबतक कि वादी अपने पक्षकी सिद्धिको सभ्योंके समक्ष नहीं कर सके । इस प्रकार दोनोंके जय पराजयकी व्यवस्था निर्णीत कर दी गयी है ।
अत्र परमतमनूद्य विचारयति ।
इस प्रकरण में दूसरे बौद्धोंके मतका अनुवाद कर श्री विद्यानन्द आचार्य विचार करते हैं ।