Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचोकवार्तिके
लिंगात्साधयितुं शक्यो विशेषो यस्य धर्मिणः ।
स एव पक्ष इति चेत् वृथा धर्मविशेषवाक् ॥ ५५ ॥
जिस धर्मीके साध्यरूप विशेषधर्मका यदि ज्ञापक हेतुकर के साधन किया जा सके वही पक्ष
है । इस प्रकार किसीके कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि यों तो साध्यरूप विशेषधर्मका कथन करना व्यर्थ पडेगा । क्योंकि पक्ष के शरीरमें ही साध्य आ चुका है। अतः केवल धर्मीको कह देनी चाहिये । साध्यवान् धर्मीको पक्ष कहने की आवश्यकता नहीं रही ।
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लिंग येनाविनाभावि सोर्थः साध्योवधार्यते । न च धर्मी तथाभूतः सर्वत्रानन्वयात्मकः ॥ ५६ ॥ न धर्मी केवलः साध्यो न धर्मः सिद्धघसंभवात् । समुदायस्तु साध्येत यदि संव्यवहारिभिः ॥ ५७ ॥ तदा तत्समुदायस्य स्वाश्रयेण विना सदा । संभवाभावतः सोपि तद्विशिष्टः प्रसाध्यताम् ॥ ५८ ॥ तद्विशेषपि सोन्येन स्वाश्रयेणेति न कचित् । साध्यव्यवस्थितिर्मूढचेतसामात्मविद्विषाम् ॥ ५९ ॥
ज्ञापक हेतु जिस साध्यरूप धर्मके साथ अविनाभाव रखता है, वह पदार्थ साध्य है, यह निर्णय किया जाता है । तिस प्रकार अविनाभावको प्राप्त हो रहा धर्मी तो साध्य नहीं है। क्योंकि धर्मसे विशिष्ट हो रहा धर्मी सभी स्थानोंपर अनन्यय स्वरूप है । अर्थात्-जहां जहां धूम है, वहां वहां अग्नि है | यह अन्वय तो ठीक बन जाता है । किन्तु जहां जहां धूमवान् (पर्वत) है, वहां वहां अग्निमान् ( पर्वत ) है । ऐसा अन्वय ठीक नहीं बनता है। हेतुकी तो साध्य के साथ व्याप्ति हैं, हेतुमान्का साध्यमान् के साथ अविनाभाव नहीं हैं । हेतुके साथ अधिकरणको लगाकर पुनः व्याप्ति बनानेसे अन्वयदृष्टान्त नहीं मिलता है । परीक्षामुखमें लिखा है कि " व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव अन्यथा तदघटनात् अतः केवळ धर्मी ही साधने योग्य पक्ष नहीं है । क्योंकि अकेले धर्मी या धर्मकी सिद्धि होनेका असम्भव है । देखे जा रहे पर्वतकी सिद्धि करना आवश्यक नहीं है । और स्मरण किये जा रहे या व्याप्तिज्ञान द्वारा जाने जा रहे अग्निको मी साधनेकी आवश्यकता नहीं है। यहां समीचीन व्यवहारको करनेवाले पुरुषों करके धर्मी और धर्मका समुदाय यदि साधा जावेगा, तब तो सर्वदा उस समुदायका अपने
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