Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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चार अंगवाले हैं । न्यायाधीश
साक्षी या दर्शक २ वादी २ और प्रतिवादी ४ इन चार अंगों के
होनेपर लौकिक वाद ( मुकद्दमा ) प्रवर्तता है । इसी बातको ग्रन्थकार श्री विद्यानन्द स्वामी वार्तिकों द्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
मर्यादातिक्रमं लोके यथा हंति महीपतिः ।
तथा शास्त्रेप्यहंकारग्रस्तयोर्वादिनोः क्वचित् ॥ ३० ॥
जिस प्रकार लोक में मर्यादाका अतिक्रमण करनेवाले या मर्यादाके अतिक्रमको राजा नष्ट कर देता है । उसी प्रकार कहीं कहीं शास्त्र में भी गर्वसे प्रसे गये वादी प्रतिवादियोंके हुये मर्यादा अतिक्रमको सभापति या राजा नाश कर देता है । अर्थात्-बांधी हुई मर्यादाको तोडनेवाले अभिमानी वादी प्रतिवादियोंको राजा नियत मर्यादा में ही अपनी शक्ति द्वारा रक्षित रखता है । अन्यथा प्रवर्तनेपर दण्डित कर देता है ।
वादिनोर्वादनं वादः समर्थे हि सभापतौ । समर्थयोः समर्थेषु प्राश्निकेषु प्रवर्तते ॥ ३१ ॥
अपनी अपनी योग्य सामर्थ्यसे युक्त हो रहे वादी प्रतिवादियोंका वाद तो सामर्थ्य युक्त सभापति होनेपर और समर्थ प्राशिनकों के होनेपर प्रवर्तता है । अर्थात्-वादी, प्रतिवादी, सम्म, और सभापतिके, अपनी अपनी समुचित सामर्थ्य से सहित होनेपर वाद प्रवर्तता है ।
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सामर्थ्यं पुनरीशस्य शक्तित्रयमुदाहृतम् ।
येन स्वमंडलस्याज्ञा विधेयत्वं प्रसिद्ध्यति ॥ ३२ ॥ मंत्रशक्त्या प्रभुस्तावत्स्वलोकान् समयानपि । धर्मन्यायेन संरक्षेद्विप्लवात्साधुसात् सुधीः ॥ ३३ ॥ प्रभुसामर्थ्यतो वापि दुर्लध्यात्मबलैरपि । स्वोत्साहशक्तितो वापि दंडनीतिविदांवरः ॥ ३४ ॥
सम्पूर्ण सभा अधिपतिकी सामर्थ्य तो फिर मंत्रशक्ति, प्रभुशक्ति, उत्साहशक्ति, ये तीन शक्तियां कहीं गयीं हैं । जिस शक्तित्रपसे उस सभापतिका अपने सम्पूर्ण अधीन मण्डलको अपनी आज्ञा के अनुसार विधान करने योग्यपना गुण प्रसिद्ध हो जाता है। तीन तीन शक्तियों में से सबसे पहिली मंत्र शक्ति के द्वारा तो वह दूरदर्शी प्रभु अपने जनोंको और अपने सिद्धान्तों को भी धार्मिक न्याय करके उप