Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
३१४
तस्वार्थश्लोकवार्तिके
यान्ययोगव्यवच्छेदेमाव्यवसिताद्यनुज्ञानं तत्त्वविषयप्रज्ञापारिपाकादि च फलमभिप्रेत्य वादं कुर्वन् परं निग्रहस्थाननिराकरोतीति कथमविरुद्धवाक् न्यायेन प्रतिवादिनः स्वाभिमायाभिवर्तनस्यैव निग्रहत्वादलामे वा ततो निग्रहत्वायोगात् । तदुक्तं । " आस्तां तावदलामादिरयमेव हि निग्रहः । न्यायेन विजिगीषूणां स्वाभिप्रायनिवर्तनम् ॥” इति सिद्धमेतत् जिगीषतोर्वादो निग्रहस्थानवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति ।
दूसरोंको चुप करनेके लिये जल्प और वितंडामें छल आदिक उठाये जाते हैं, यह तो नहीं कहना । क्योंकि तिस प्रकार छळ आदिकके उठानेसे तो दूसरेका चुप रहना असम्भव है। क्योंकि असमीचीन उत्तर अनन्त पडे हुये हैं। अतः दूसरा अनेक जातियोंद्वारा प्रत्यवस्थान करता जायगा, कोई रोक नहीं सकता है । वस्तुतः देखा जाय तो समीचीन न्यायकी सामर्थ्य से ही दूसरेका निराकरण करना सम्भवता है । अन्यथा नहीं, सो यह प्रसिद्ध नैयायिक अनिणीत, संदिग्ध, विपर्यस्त, आदिका ज्ञान हो जाना और जाने हुये तात्त्विक विषयोंमें प्रज्ञाका परिपाक दृढता आदि हो जाना रूप फळका अभिप्राय कर दूसरोंके निराकरणके लिये अन्यके योगका व्यवच्छेद करके वादको कह रहा संता निग्रहस्थानों करके दूसरेका निराकरण कर रहा है । ऐसा कहनेवाला नैयायिक पूर्वापर अविरुद्ध बोलनवाला कैसे समझा जा सकता है ! अर्थात्-उद्देश्य तो इतना पवित्र है। किन्तु जघन्यमार्ग पकड रखा है। सच पूछो तो प्रतिवादीका न्याय मार्ग करके स्वकीय अभिप्रायसे निवृति करा देना ही निग्रह है। अपने आग्रहीत अभिप्रायोंसे निवृत्त करा कर यदि वादीने प्रतिवादीको अपने समीचीन सिद्धान्तोंका लाम नहीं करा लिया है तो इन छळ आदिकोंसे उस प्रतिवादीका निग्रह कथमपि नहीं हो सकता है। वही ग्रन्थों में कहा है कि नाम नहीं होना, प्रसिद्धि नहीं होना, सत्कार नहीं होना, आदिक तो दूर ही रहो, ये तो सब पीछेकी बाते हैं । हम तो कहते हैं कि जीतनेकी इच्छा रखनेवालोंमेंसे किसी एकका किसी एकके द्वारा न्यायपद्धति करके नियमपूर्वक स्वकीय अभिप्रायोंसे निवृत करा देना यही निग्रह है । इस कारण यह राद्धान्त सिद्ध हो जाता है कि वाद (पक्ष ) जीतनेकी इच्छा कर रहे विद्वानोंमें प्रवर्तता है ( साध्य ) । अन्यथा निग्रहस्थान सहितपना असिद्ध हो जावेगा। यहांतक छव्वीसवीं कारिकाके व्याख्यानका उपसंहार कर दिया गया है।
स च चतुरंगा स्वाभिप्रेतस्वव्यवस्थानफळत्वाल्लोकमख्यातवादवत् । तथाहि ।
और अट्ठाईसवीं वार्तिकके परामर्श अनुसार वह वाद ( पक्ष ) सभ्य, सभापति, वादी, प्रतिवादी, इन चार अंगोंके होनेपर प्रवर्तता है ( साध्य ) । अपने अपने अभिप्राय अनुसार इष्ट हो रहे अपने ही पक्षकी व्यवस्था करा देना रूप फलसे सहित होनेसे ( हेतु ) जैसे कि कोकमे विजिगीषुमोके भके प्रकार प्रसिद्ध हो रहे वाद अपनी अपनी पक्षकी पुष्टि हो जाना उद्देश्य कर किये गये