Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
निवारणबुध्या तत्वज्ञानायावयवयोः प्रवृत्तिर्न च साधनाभासो दूषणाभावो वा तत्वज्ञान हेतु. रतो न तत्प्रयोगो युक्तः इति। तदेतदसंगतं। अल्पवितंडयोरपि तथोद्भावननियमप्रसंगातयोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणाय स्वयमभ्युपगमात् । तस्य छलजातिनिग्रहस्थानः कर्तुमशक्यत्वात् ।
यहाँ नैयायिक अपने सिद्धान्तका अवधारण करते हैं कि वीतरागोंमें ही वाद प्रवर्तता है। यद्यपि वादमें आठ निग्रहस्थानोंका सद्भाव है, तो भी दूसरेका निग्रह करनेकी बुद्धि करके निग्रहस्थानोंका उठाना नहीं होनेसे वहां परस्परमें जीतनेकी इच्छा नहीं है । वही हमारे ग्रन्थोंमें कहा गया है कि तर्क शब्द करके भूतपूर्वका ज्ञान होना इस न्यायके द्वारा वादमें वीतरागकथापनका ज्ञापक हो रहा है। अतः निग्रहस्थानोंके उद्भावका नियम प्राप्त हो जाता है । तिस कारण इस प्रकार " प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ " के उत्तरमें पडे हुये " सिद्धान्ताविरुद्ध " और " पंचावयवोपपन" इन दो पदोंके द्वारा सम्पूर्ण निग्रहस्थान, छक जाति, आदिका उपलक्षणरूप प्रयोजनसहितपना है। अतः वादमें अप्रमाणपनेकी बुद्धि करके दूसरों के प्रति छळ, जाति, निग्रहस्थानोंका प्रयोग किया है। दूसरेका निग्रह करनेकी बुद्धिसे छल आदिक नहीं उठाये गये हैं। किन्तु दोषोंके निवारणकी सद्विचारबुद्धिसे छल आदिक उठाये गये हैं । हम दोनों वादी प्रतिवादियोंकी प्रवृत्ति तत्त्वज्ञान करनेके लिये है। दूसरेके हेतुको हेत्वाभास बना देना अथवा अपने हेतुमें दूषण नहीं आने देना हमारा लक्ष्य नहीं है । हेवामास कर देना या दूषण नहीं आने देना कोई तत्त्वज्ञानका कारण नहीं है। इस कारण उन छळ भादिकका प्रयोग करना युक्त नहीं है । भावार्थ-न्याय भाष्यमें लिखा है कि अवयवोंमें प्रमाण और तर्कका अन्तर्भाव हो जानेपर पुनः पृथकरूपसे प्रमाण और तर्कका ग्रहण करना साधन और उपालम्भके व्यतिषंगका ज्ञापक है । सोलह पदार्थोंमें वादके पहिले तर्क और निर्णय पदार्थ हैं । वीतराग कथामें यहाँ यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये, इस प्रकार तत्त्वज्ञान के लिये किया गया विचार तर्क है । विमर्षण कर पक्ष प्रतिपक्षोंकरके अर्थ अवधारण करना निर्णय है। तर्क और निर्णयके समय किया गया विचार जैसे वीतरागताका कारण है, वैसे ही वादमें भी वीतरागोंका विचार होता है। उसमे हार जीतके लिये निग्रहस्थान आदिका प्रयोग नहीं है। ऐसे जघन्य कार्योंमें तत्वनिर्णय नहीं हो पाता है । यहांतक नैयायिक वादको वीतराग कथापन साधनेके लिये अनुनय कर चुके । अब आचार्य कहते हैं कि यह सब उनका कहना पूर्व अपर संगतिसे रहित है। क्योंकि यों तो जल्प और वितंडामें भी निग्रहस्थान मादिका तिस प्रकार यानी निग्रह बुद्धिंसे नहीं, किन्तु निवारण बुद्धिसे उठाने के नियमका प्रसंग हो जायगा । उन जल्प वितंडा दोनोंको नैयायिकोंने स्वयं तत्त्वनिर्णयकी संरक्षा करनेके लिए स्वीकार किया है । छल, जाति, निग्रह स्थानोंकरके वह तत्त्वनिर्णय नहीं किया जा सकता है।
परस्य तूष्णीभावार्थ जल्पवितंडयोश्छलायुद्भावनमिति चेन,तथा परस्य तूष्णीभावासंभवादसदुत्तराणामानंत्यान्यायवलादेव परनिराकरणसंभवात् । सोयं परनिराकरणा
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