Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तलार्यचिन्तामणिः
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त्रेसठ वादियोंको जीतनेवाले श्रीदत्त आचार्य स्वकृत " जल्पनिर्णय " नामक प्रन्थमें अल्पको दो प्रकार स्वरूप कह चुके हैं । एक तत्त्वोंको विषय करनेवाला जल्प है। दूसरा नवीन नवीन अर्थोकी युक्तियोंके उन्दोधको करनेवाली प्रतिमा बुद्धिसे होनेवाला जल्प प्रातिम अर्थोको विषय कर रहा प्रातिम है।
का पुनर्जयोत्रेत्याह।
हे भगवन् ! फिर यह बतलाइये कि यहां वादमें जय क्या पदार्थ है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य करते हैं।
तत्रेह तात्त्विके वादेऽकलंकैः कथितो जयः। स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोन्यस्य वादिनः ॥ ४७ ॥
उन दो प्रकारके वादों से इस तात्विक वादमें श्री अकलंकदेव महाराजोंकरके जय व्यवस्था यों कही गई है कि वादी और प्रतिवादी से किसी एकके निज पक्षकी सिद्धि हो जाना ही अन्य दूसरे वादीका निग्रह है। अर्थात्-अष्टशती ग्रन्थमें धर्मकीर्ति बौद्धके मन्तव्यका निराकरण करते हुये श्री अकलंकदेवने दूसरेके निग्रह करने और अपनी जय करनेमें स्त्रपक्ष सिद्धिको प्रधानकारण माना है। वादीके ऊपर केवल दोष उठा देनेसे प्रतिवादी नहीं जीत सकता है । प्रतिवादीको अपने पक्ष की सिद्धि करना आवश्यक है । तभी प्रतिवादीको जय प्राप्त होगा अन्यथा नहीं।
कथं ?
यहां कोई पूछता है कि श्री अकलंकदेव द्वारा कहा गया सिद्धान्त युक्त कैसे है ! इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है, सो सुनो।
स्वपक्षसिद्धिपर्यंता शास्त्रीयार्थविचारणा । वस्त्वाश्रयत्वतो यद्वलौकिकार्थे विचारणा ॥४८॥
जैसे कि लौकिक अर्थोंमें विचार करना वस्तुके आश्रयपनेसे होता है, उसी प्रकार शास्त्र सम्बन्धी अर्थोकी विचारणा अपने पक्षकी सिद्धिपर्यंत होती है, पीछे नहीं । अर्थात-लौकिक जन परस्परमें तभीतक विवाद करते हैं, जबतक कि अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो चुकी है। इष्ट हो रहे भूमि, धन, यश, मान, प्रतिरोध आदि वस्तुओंकी प्राप्ति हो चुकनेपर टंटा उठा लिया जाता है। या झगडा मिट जाता है। वैसे ही वादी या प्रतिवादी दोनोंमेंसे कोई यदि अपने पक्षको सिद्ध नहीं कर सकेगा, तबतक तो वाद प्रवृत्त रहेगा। स्वपक्षकी सिद्धि हो चुकनेपर कथाका अवसान हो जायगा।