Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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नहीं आता है। देखिये, सबसे पहिले वादी तो अपने दार्शनिक सिद्धान्तके अनुसारीपनेकरके समर्थ होता हुआ अन्यथानुएपत्तिस्वरूप सामर्थ्यसे युक्त हो रहे हेतुका निरूपण करता है । उसके पीछे अपने दर्शनका अवलम्ब करके दोषोंका उठानारूप सामर्थ्यसे युक्त हो रहा प्रतिवादी समीचीन दूषणका प्ररूपण करता है । उस दूषणकी प्रतिपक्षका विघातकपनारूप सामर्थ्य ऐसी दशामें विरुद्ध नहीं पड रही है । मावार्थ-जैसे कि सर्वथा क्षणिकपमेको सिद्ध करनेके लिये बौद्धने " सर्व क्षणिकं. सत्त्वात् " सभी पदार्थ क्षणिक हैं, सत् होनेसे, यह अनुमान प्रयोग किया, बौद्ध दर्शनके अनुसार वादी समर्थ है। क्योंकि क्षणिकपन साध्यको साधने में समर्थ हो रहे सत्त्व हेतुका प्रकथन कर रहा है। और बौद्धमत अनुसार सत्त्व हेतुमें क्षणिकपनके साथ अधिनाभाव रखना रूप सामर्थ्य विद्यमान है। दूसरी ओर मीमांसक मत अनुयायी प्रतिवादी अपने सिद्धान्तका अवलम्ब करके समीचीन दोषको उठानेस्वरूप सामर्थ्यसे युक्त होकर यों कह रहा है कि बौद्धोंका हेतु विरुद्धहेत्वाभास है । प्रत्यभिज्ञायमानपन होनेसे या वाचक शब्दका परार्थपना होनेसे सभी शब्द नित्य हैं। किसी भी शब्दका समूलचूळ नाश नहीं हो पाता है । सर्वथा क्षणिक शद्बमें अर्थक्रिया भी नहीं हो सकती है। इत्यादि प्रकारसे प्रतिपक्षका विघातकपना-रूप सामर्थ्य प्रतिवादीके दूषणमें विद्यमान है। पुनः बौद्ध अपने सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये हेतु प्रयोग करता है। पीछे प्रतिवादी भी उसमें समीचीन दोषोंको उठा देता है । इ । प्रकार अपने अपने सिद्धान्तोंके अनुसार समीचीन हेतु और समीचीन दूषणोंका प्रयोग करना अक्षुण्ण सध जाता है। युक्ति, सदागम और अनुभव इनसे जो सिद्धान्त अन्तमें निर्णीत होता है, वह सिद्धान्त यदि वादीके विचार अनुसार है, तब तो प्रतिवादीके दूषण असमीचीन दूषण समझे जायगे और वह अन्तिम सिद्धान्त यदि प्रतिवादीके अनुकूल है, तो वादीके हेतु हेत्वामास ज्ञात कर लिये जायगे । हां, यदि बीचमें वादी या प्रतिवादीने अपना पक्ष निर्दोष होते हुये भी व्यर्थ कथन उपकथन, किया है, वह प्रशस्त दूषण या समीचीन हेतुओंके साथ नहीं गिना जावेगा। कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि वादीका सिद्धान्त निर्दोष है। किन्तु प्रतिवादी अपनी अकाट्य तर्को द्वारा वादीके हेतुओंको दूषित कर देता है। अथवा कदाचित् असमीचीन सिद्धान्तको भी सुदक्ष वादी हेतुओंसे सिद्ध कर देता है । किन्तु निर्बळ वादी अपने सत्पक्षकी रक्षा करता हुआ उस वादीके हेतुओंमें दोष नहीं उठा सकता है। ऐसी दशामें जयपराजयकी व्यवस्था भले ही चाहे जैसी हो जाय, किन्तु सर्वमान्य सिद्धान्तका निर्णय यों नहीं हो पाता है । मांसभक्षणको पुष्ट करनेवाला कुती पुरुष शुद्ध अन्न, फल, भोजन का पक्ष ले रहे मोठे प्रतिवादीको हरा देता है। एतावता सिद्धान्त व्यवस्था नहीं निर्णीत कर दी जाती है। प्रकरणमें यह कहना है कि अन्तिम निणीति या सर्वमान्य सिद्धान्त अनुसार नहीं, किन्तु अपने अपने दर्शन अनुसार बादी प्रतिवादियोंका समीचीन हेतु और समीचीन दोष उठाना ये दोनों कार्य अविरुद्ध बन जाते हैं।
का पुनरियं प्रतिपक्षविषातितेत्याह ।