Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थकोकवार्तिके
प्रकार कोई कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि वे भी कोई विद्वान् समीचीन वाणीको कहनेवाले नहीं है । क्योंकि प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन ऐसे सूत्रकारके इस कथन द्वारा विधिरूप करके प्रतिपक्षसे हीन हो रहा वैतंडिक है । यही अर्थ विवक्षाप्राप्त है । अर्थात्-जैसे साधनवादी अपने पक्षको स्वरूपकी विधि करके पुष्ट कर रहा है, उस प्रकार वैतंडिक अपने पक्षका विधान नहीं कर रहा है । जिसकी नियमसे स्थापना की जाती है वह विधिस्वरूप प्रतिपक्ष है । किन्तु परपक्षके निराकरणकी सामार्थ्यसे जिसका उन्नयन कर लिया है, यानी अर्थापत्ति या ज्ञानलक्षणासे जिसकी प्रतिपत्ति हो जाती है, वह यहां मुख्य विधिस्वरूप करके व्यवस्थित नहीं हो रहा है। हां, गौण रूपसे उसकी व्यवस्था भले ही हो जाय ।
जल्पोपि कश्चिदेवं प्रतिपक्षस्थापनाहीनः स्यान्नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्चप्रसंगादिति परपक्षप्रतिषेधवचनसामर्थ्यात् सात्मकं जीवच्छरीरमिति स्वपक्षस्य सिद्धेविधिरूपेण स्थापनाविरहादिति चेन्न, नियमेन प्रतिपक्षस्थापनाहीनत्वाभावाजल्पस्य । तत्र हि कदाचित्स्वपक्षविधानद्वारेण परपक्षप्रतिषेधः कदाचित्परपक्षप्रतिषेधद्वारेण स्वपक्षविधानमिष्यते नैवं वितंडायां परपक्षप्रतिषेधस्यैव सर्वदा तत्र नियमात् ।
___ कोई विद्वान् कहते हैं कि यों तो जल्प भी कोई कोई इस प्रकार प्रतिपक्षको स्थापनासे हीन हो जावेगा । देखिये, जल्पवादी कहता है कि यह जीवित शरीर (पक्ष) आत्मारहित नहीं है (साध्य) क्योंकि प्राण चलना, नाडी धडकना, उष्णता आदिसे सहितपनका यहां प्रसंग प्राप्त हो रहा है । अन्यथा अप्राणादिमत्वप्रसंगात् यानी यह शरीर यदि आत्मासे रहित होता तो प्राण आदिके रहितपन का प्रसंग आता । इस प्रकार परपक्षके निषेधको करनेवाले वचनकी सामर्थ्यसे ही जीवित शरीर सात्मक है, तिस प्रकारके स्वपक्षकी सिद्धि हो जाती है। यहां स्वतंत्र विधिरूप करके जल्पवाद के पक्ष की स्थापनाका विरह है। अब आचार्य कहते हैं कि यों तो नहीं कहना । क्योंकि नियमकरके प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीनपना जल्पके नहीं है । अर्थात्-जल्पवादी साधनवादीके प्रतिपक्ष हो रहे अपने पक्षकी स्थापनाको कंठोक्त कर भी सकता है। किन्तु वैतंडिक अपने पक्षकी स्थापनाको नहीं करता है । कारण कि उस जल्पमें कभी कभी मुख्यरूपसे अपने पक्षकी विधिके द्वारा गौणरूपसे परपक्षका निषेध कर दिया जाता है । और कभी कभी प्रधानरूपसे परपक्षके निषेधद्वारा गौणरूपसे अपने पक्षका विधान इष्ट कर लिया जाता है । किन्तु वितंडामें इस प्रकार नहीं हो पाता है। क्योंकि वहां वितंडामें सदा परपक्षके निषेध करनेका ही नियम हो रहा है । अतः जल्पसे वितंडामें अन्तर है।
नन्वेवं प्रतिपक्षोपि विधिरूपो वितंडायां नास्तीति प्रतिपक्षहीन इत्येव वक्तव्य स्थापनाहीन इत्यस्यापि तथाऽसिद्धेः स्थाप्यमानस्याभावे स्थापनायाः संभवायोगादिति