Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थोक वार्तिके
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वादमें वादी प्रतिवादियों द्वारा जिन पक्ष और प्रतिपक्षका प्ररिग्रह किया जाता है, वे पक्ष और प्रतिपक्ष कैसे होने चाहिये इसका विचार करते हैं, जिससे कि वितंडामें अतिव्याप्ति नहीं हो 1 कारण कि पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों तो वस्तुके स्वभाव हो रहे धर्म हैं । वे दोनों एक अधिकरण में ठहरनेवाले होने चाहिये । पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों परस्पर में विरुद्ध होय एक ही कालमें दोनों विचारको प्राप्त हो रहे होंय, पक्ष प्रतिपक्ष दोनोंका अभीतक निश्चय नहीं हो चुका होय, ऐसे पक्ष और प्रतिपक्ष होने चाहिये इन पक्ष प्रतिपक्षोंके विशेषणों की कीर्ति इस प्रकार है कि वे पक्ष प्रतिपक्ष वस्तुके विशेष धर्म होय, क्योंकि सामान्य रूपसे वस्तुको हम जान चुके हैं, विशेष धर्मो जानने के निमित्त ही तो यह विवाद चलाया गया है । जैसे कि शद्वको सामान्य रूपसे जानकर उस शद्ब के नित्यत्व, अनित्यत्व, धर्मोका निर्णय करनेके लिये विचार चलाया है । तथा वे पक्ष और प्रतिपक्ष एक ही अधिकरणमें ठहर रहे होय, अनेक अधिकरणोंमें वे ठहर रहे धर्म तो वादी प्रतिवादियोंको विचार करनेके लिये प्रयुक्त नहीं कराते हैं। क्योंकि दो अधिकरणोमें ठहर रहे दो पक्ष प्रतिपक्ष धर्मोकी प्रमाण करके सिद्धि मानी जा रही है । उसको इस प्रकार समझ लीजिये कि बुद्धि अनित्य है और आत्मा नित्य है । यहां अनित्यस्व धर्म तो बुद्धिमें रक्खा है, और नित्यत्व धर्म आत्मामें ठहराया है । एक ही वस्तुमें दो विरुद्धधर्म रहते तो शास्त्रार्थ किया जाता । पुद्गलको क्रियावान् और आकाश को क्रियारहित माननेमें किसीका झगडा नहीं है। इस प्रकार अविरुद्ध हो रहे भी धर्म वादियोंको विचार करनेमें प्रेरक नहीं होते हैं । उसको इस प्रकार समझिये कि जैसे द्रव्य क्रियावान् है और क्रियारहित भी है। एक ही शरीर में बैठकर लिखनेपर हाथोंमें क्रिया है । अन्य शरीर के भागों में क्रिया नहीं है । वायुके चलनेपर वृक्षकी शाखाओं में क्रिया है । जड या स्कन्ध क्रिया नहीं है अथवा द्रव्य क्रियावान् है और द्रव्य गुणवान् है । ये अविरुद्ध हो रहे दो धर्म विचार मार्गपर आरूढ नहीं किये जाते हैं । इस कारण वे पक्ष प्रतिपक्ष हमने विरुद्ध हो रहे कहे हैं । तिसी प्रकार भिन्न भिन्न कालमें वर्त रहे दो विरुद्धधर्म तो विवाद करने योग्य नहीं हैं । जैसे कि द्रव्य क्रियावान् भो है और क्रियारहित भी है । कालके भेद होनेपर द्रव्यमे क्रियारहितपना और क्रियासहितपना घटित हो जाता है। जो ही घट (पर्याय) खाने, लेजानेपर या उठाने धरनेपर, क्रिया वान है वही घर दिया गया घडा थोडी देर पीछे क्रियारहित भी है। जैनमत अनुसार चलता फिरता देवदत्त क्रियावान् है । और अन्य कालोंमें स्थिर हो रहा देवदत्त निष्क्रिय भी है। इस कारण एक ही कामें प्राप्त हो रहे धर्म ही पक्ष प्रतिपक्ष होते हैं, यह कहा गया था । तथा निर्णीत हो चुके धर्म भी वादी प्रतिवादियोंको विचार करनेके लिये नहीं प्रयुक्त कराते हैं । क्योंकि निश्चय कर चुकने के उत्तरकालमें विवाद नहीं हुआ करता है । इस कारण वे पक्ष प्रतिपक्ष हमने अनिश्चित इस प्रकार निर्देशको प्राप्त कर दिये हैं कह दिये गये हैं ) । इस प्रकार उक्त विशेषणोंसे विशिष्ट हो रहे पक्ष प्रतिपक्षरूप धर्मोका परिग्रह करना वाद है। परिग्रहका अर्थ तो " इसी प्रकार हो
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