Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
कुतोन्यथा भाष्यकारस्यैवं व्याख्यानमिति चेत्, सर्वथा स्वपक्षहीनस्य वादस्य जल्पवितंडावदसंभवादेव । कथमेवं वादजल्पयोर्वितंडातो भेदः १ प्रतिपक्षस्थापनाहीनत्वाविशेषादिति चेत्, उक्तमत्र नियमता प्रतिपक्षस्थापनाया हीना वितंडा, कदाचित्तया हीनी वादजल्पाविति । केवलं वादः प्रमाणतर्कसाधनोपलंभत्वादि विशेषणः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । जल्पस्तु छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभश्च यथोक्तोपपन्नश्चेति वितंडातो विशिष्यते ।
कोई पूंछता है कि भाष्यकार वात्स्यायनका अन्य प्रकारोंसे व्याख्यान नहीं कर इसी प्रकार का व्याख्यान करना कैसे ठीक समझा जाय ? यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि जल्प और वितंडाके समान स्वपक्षसे सर्वथा हीन हो रहे वादका असम्भव ही है । अर्थात्-जैसे जल्प और वितंडामें उच्यमान या गम्यमान स्वपक्ष विद्यमान है, उसी प्रकार वादमें भी स्वपक्ष विद्यमान है । फिर कोई प्रश्न उठाता है कि इस प्रकार स्वपक्षके होनेपर वितंडासे वाद और जल्पका भेद कैसे हो सकेगा ? बताओ। क्योंकि प्रतिकूल पक्षकी स्थापनासे रहितपनकी अपेक्षा इन तीनोंमें कोई विशेषता नहीं है । यों कहनेपर तो आचार्य समाधान करते हैं कि हम इस विषयमें पहिले ही कह चुके हैं कि नियम करके जो प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन है, वह वितंडा है। और कभी कभी स्वरूपकरके प्रतिपक्षसे हीन हो रहे वाद और जल्य हैं । अर्थात्-वितंडामें तो सर्वदा प्रतिपक्षको स्थापना नहीं ही होती है। किन्तु वाद और जल्पमें कभी प्रतिपक्षकी स्थापना हो जाती है और कभी प्रतिपक्षकी स्थापना नहीं भी होती है । हां, केवल बादमें प्रमाण और तर्को करके स्थापना और प्रतिषेध किये जाते हैं। अपने सिद्धान्तको स्वीकार कर उससे अविरुद्ध वाद होना चाहिये, इत्यादि विशेषणोंसे सहित हो रहा पक्ष प्रतिपक्षका परिग्रह करना वाद है। और जल्प तो छल जाति और निग्रह स्थानोंकरके साधन करना, उपालम्भ देना, इनसे युक्त है और ऊपर कहे हुये वादके लक्षण से जो कुछ उपपत्ति युक्त होय, उससे सहित है । इस कारण वितंडासे वाद और जल्पमें विशेषता प्राप्त हो जाती है। ___ तदेवं पक्षपतिपक्षपरिग्रहस्य जल्पे सतोपि प्रमाणतर्कसाधनोपलंभत्वादिविशेषणाभावाद्वितंडायामसत्वाच्च न जल्पवितंडयोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वसिद्धिः प्रकृतसाधनायेनेटविघातकारीदं स्यादनिष्टस्य साधनादिति वाद एव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वाजिगीपतोर्युक्तो न जल्पवितंडे ताभ्यां तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणासंभवात् । परमार्थतः ख्यातिलाभपूजावत् ।
तिस कारण अबतक यों सिद्ध हुआ कि वादके लक्षणका विशेष्य दल बनरहा पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रह करमा यद्यपि जल्पमें विद्यमान हो रहा है, तो भी प्रमाण तोंसे साधन या उलाहना देना सिद्धान्त अविरुद्ध होना आदि विशेषगोंके नहीं घटित होनेसे जल्सको तत्त्वनिर्णयका संरक्षकपना