Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
३.१
(हेतु ) जैसे कि लोकमें प्रसिद्ध हो रहे वाद ( मुकद्दमा लडना या आखाडे मल्ल युद्ध होना ) हैं, (अन्वय दृष्टान्त )। बात यह है कि वीतराग पुरुषोमें होनेवाला शब्द आत्मक अधिगम वाद नहीं है। किन्तु हाथीके साथ हाथीका लडना, तीतर, मुर्गा, कुत्ता आदिका युद्ध या मल्लके साथ मल्लका लडना, इस प्रकार जीतनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंमें वाद प्रवर्तता है । नैयायिकों द्वारा माना गया वीतरागोंमें वाद प्रवर्तनका पक्ष तो युक्तियोंसे रहित है । इसको विवरणमें और भी अधिक स्पष्ट किया जायगा।
___ ननु च पाश्निकापेक्षणाविशेषेपि वादजल्पवितंडानां न वादो जिगीषतोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वरहितत्वात् । यस्तु जिगीषतोर्न स तथा सिद्धो यथा जल्पो वितंडा च तथा बादः तस्मान्न जिगीषतोरिति । न हि वादस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणार्यो भवति जल्पवितंडयोरेव तथात्वात् । तदुक्तं । " तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थे जल्पवितंडे बीजमरोहसंरक्षणार्थ कंटकशाखावरणवदिति । तदेतत्पळापमात्रं, वादस्यैव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वोपपत्तेः । तथाहि-वाद एव तत्त्वाध्यवसायरक्षणार्थः प्रमाणतर्कसाधनोपार्कभत्वे सिद्धांताविरुद्धत्वे पंचावयवोपपन्नत्वे च सति पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहत्वात्, यस्तु न तथा स न यथा आक्रोशादिः, तथा च वादस्तस्मात्तत्वाध्यवसायरक्षणार्थ इति युक्तिसद्भावात् । न तावदयमसिदो हेतुः प्रमाणतर्कसाधनोपालंभः सिद्धांताविरुद्धः पंचावयवोपपन्नः पक्षमतिपक्षपरिग्रहो वाद इति वचनात् ।।
यहां नैयायिकोंका अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये अवधारण है कि यद्यपि वाद, जल्प, और वितंडा इन तीनोंके बीच प्राश्मिक पुरुषोंकी अपेक्षा करनेमें कोई विशेषता नहीं है, फिर भी वाद ( पक्ष ) जीतनेकी इच्छा रखनेवाले विजिगीषुओंमें नहीं प्रवर्तता है (साध्य ) । क्योंकि वाद विचारा तत्त्वनिर्णयकी अच्छी रक्षा इस प्रयोजनके धारकपनसे रहित हो रहा है (हेतु) । जो तो विजिगीषुओंके प्रवर्त रहा है, वह तिस प्रकार तत्त्वनिर्णयका संरक्षण करनारूप प्रयोजनसे रहित नहीं है, जैसे कि जल्प और वितंडा हैं, ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) । तिस प्रकार तत्त्व निर्णयके संरक्षणके लिये वाद नहीं है ( उपनय ) । तिस कारणसे विजिगीषु पुरुषोंमें वाद नहीं प्रवर्तता है। (निगमन ), अर्थात्-धनाढ्योंके पुत्रको रक्षा जैसे दाईयां करती हैं, धान्य उपजे हये खेतकी रक्षा झाडीके काटों द्वारा बना ली गयी मैड करती है, उसी प्रकार तत्वज्ञानका परिपालन लधारीके समान जल्प और वितंडासे होता है । निर्णय और वाद तो फल या धान्यके समान रक्षणीय पदार्थ हैं। रत्नोंकी रक्षा गढसे है, रत्न स्वयं रक्षक नहीं है। इसी प्रकार तत्त्वज्ञानोंका संरक्षक नहीं होनेके कारण वाद विजिगीषुओंमें नहीं प्रवर्तता है । किन्तु वीतरागपुरुषोंका संलाप वाद है। उक्त अनुमानमें दिया गया हेतु स्वरूपसिद्ध नहीं है । पक्षमें वर्त रहा है। देखिये । तत्त्वोंके अध्यवसायकी