Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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कोई पूछता है कि क्या इतने ही प्रकारके उपर्युक्त कहे अनुसार सभी नये कही जाती हैं ? अथवा और भी उनके विशेषभेद हैं ? अर्थात्-दो, सात, पन्द्रह आदिक ही नये हैं या और भी इनके अधिक मेद हैं ? बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानंद आचार्य कहते हैं कि कहे गये प्रकारोंसे अतिरिक्त भी नये विद्यमान हैं । इस बातको वे वार्तिक द्वारा कहें देते हैं । सो सुनिये । संक्षेपेण नयास्तावद्याख्यातास्तत्र सूचिताः ।
तद्विशेषाः प्रपंचेन संचिंत्या नयचक्रतः ॥ १०२ ॥
श्री उमास्वामी महाराजने उस नयप्रतिपादक सूत्रमें संक्षेपसे नयोंकी सूचना कर दी है । तद नुसार कुछ भेद, प्रभेद, करते हुये श्री विद्यानन्द स्वामीने उन नयोंका व्याख्यान कर दिया है। फिर भी अधिक विस्तारसे उन नयोंके विशेष मेदप्रमेदोका नयचक्र नामक ग्रन्थसे विद्वान् पुरुषों करके अच्छा चिन्तवन करलेना चाहिये ।
एवमधिगमोपायभूताः प्रमाणनया व्याख्याताः ।
इस प्रकार अधिगम के प्रकृष्ट उपाय हो रहे प्रमाण और नयोंका यहांतक व्याख्यान कर दिया गया है । " प्रमाणनयैरधिगमः " आदिक पहिले कई सूत्रों में प्रमाणोंका व्याख्यान है । और 1 प्रथम अध्यायके इस अन्तिमसूत्रमें नयोंका विवरण किया गया है । प्रमाणनयस्वरूप ही तो न्याय है । इति नयसूत्रस्य व्याख्यानं समाप्तं ।
इस प्रकार नयोंका प्रतिपादन करनेवाले " नैगम संग्रह व्यवहारर्जुसूत्रशद्वसमइस सूत्रका व्याख्यान यहांतक समाप्त हो चुका है ।
"
मिरूढैवंभूता नयाः
इस सूत्र का सारांश |
इस सूत्र के प्रकरणों की सूची इस प्रकार है कि अधिगमके उपायभूत प्रमाणोंका वर्णन कर चुकने पर अब नयों का वर्णन करनेके लिये सूत्रका रचा जाना आवश्यक बताते हुये श्री विद्यानन्द आचार्य ने इस सूत्र में ही नयके लक्षण और भेदप्रभेदोंका अन्तर्भाव हो रहा समझा दिया है । नयका सिद्धान्तलक्षण नयशद्वकी निरुक्तिसे लब्ध हो जाता है । श्री उमास्वामी महाराजके अभिप्राय अनुसार श्री समन्तभद्र आचार्यने नयकी परिभाषा की है। नयके विभागोंका परामर्श कराते हुये विद्वत्तापूर्वक "नयाः " पदका व्याकरण किया है । गुणार्थिक नयका पर्यायार्थिक में अन्तर्भाव हो जाता है। मूलनय दो ही हैं । चार, पांच, छह, सोव्ह, पच्चीस, नहीं हैं। पश्चात् नैगमके मेद प्रभेदोका उदाहरणपूर्वक लक्षण करते हुये तदाभासोंको दर्शाया है । संप्रहनय और संग्रहामासको दिखाते हुये एकान्तवादियोंका निराकरण कर दिया है । व्यवहारनय द्वारा किये गये विभागका विचार करते हुये व्यवहारको नैगमपना नहीं हो जानेका विवेचन कर दिया है । अन्य मतियों के