Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।
तत्त्वार्थाधिगमभेदः। यहांतक पहिले अध्यायके सूत्रोंका विवरण कर अब श्री विद्यानन्द स्वामी विद्वानोंके अति उपयोगी हो रहे प्रकरणका प्रारम्भ करते हैं, जिसका कि परिशीलन कर उन्नतमीब होते हुये जैन विद्वान् स्वयं तत्त्वोंका अध्यवसाय कर दूसरोंके हृदयमें तत्त्वज्ञानको ठीक ठीक दृढतापूर्वक जमा देवें और निर्दोष सनातन जैनधर्मका दुन्दुभिनिनाद जगत्में विस्तार देवें । - अथ तत्त्वार्थाधिगमभेदमाह। इसके अनन्तर श्रीविद्यानन्द आचार्य तत्वार्थोकी अधिगतिके भेदको समझाते हुये कहते हैं।
तत्त्वार्थाधिगमस्तावत्प्रमाणनयतो मतः । सर्वः स्वार्थः परार्थों वाध्यासितो द्विविधो यथा ॥१॥
" प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्रके द्वारा श्री उमास्वामी महाराजने तस्वार्थीका अधिगम सबसे पहिले प्रमाण और नयों करके होता हुआ स्वीकार किया है। तथा इस सिद्धान्तका यथायोग्य निर्णय पूर्व प्रकरणोंमें श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा करा दिया गया है कि वही सभी अधिगम स्वके लिये अथवा दूसरों के लिये होता हुआ दो प्रकारका है।
अधिगच्छत्यनेन तत्त्वार्थानधिगमयत्यनेनेति वाधिगमः स्वार्थो ज्ञानात्मका, परार्थो वचनात्मक, इति प्रत्येयम् ।
श्री उमास्वामी महाराजके सूत्रमें पडे हुये अधिगम शब्द करके ही उक्त दोनों अर्थ घनित हो जाते हैं । जीव इस ज्ञानकरके तत्त्वार्थीको स्वतंत्रतापूर्वक आनता है । इस प्रकार अधि उपसर्ग पूर्वक " गम् " धातुसे नवगणीमें विग्रह कर अच् प्रत्ययका विधान करनेसे अधिगम शब्द बनाया जाता है । इसका अर्थ ज्ञानस्वरूप अधिगम है। और अधिपूर्वक गम् धातुसे ण्यन्त प्रक्रियामें णिच् प्रत्यय करते हुये पुनः अच् प्रत्ययकी विधिद्वारा जो अधिगम शब्द बनाया जाता है, वह अधिगतिके प्रेरक शब्दको कह रहा है । बामस्वरूप आधिगम तो स्व के लिये उपयोगी है। और वचनस्वरूप अधिगम अन्य श्रोताओं के लिये उपयोगी है । इस प्रकार प्रतीति कर लेनी चाहिये ।
पराधिगमस्तत्रानुद्भवद्रागगोचरः। जिगीषु गोचरश्चेति द्विधा शुद्धधियो विदुः ॥२॥