Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तरवायचिन्तामणिः
साभिमानजनारभ्यश्चतुरंगो निवेदितः । तज्ज्ञैरन्यतमापायेप्यर्थापरिसमाप्तितः ॥ ६ ॥ जिगीषयां विना तावन्न विवादः प्रवर्तते । ताभ्यामेव जयोन्योन्यं विधातुं न च शक्यते ॥ ७ ॥
परस्पर में जीतने की इच्छा रखनेवाले वादियोंमें प्रवर्त रहा दूसरे प्रकारका वाद ( शास्त्रार्थ ) तो अभिमानी पुरुषोंके द्वारा आरम्भा जाता है । उस वादके वादी, प्रतिवादी, सभ्य, और सभापति, ये चार अंग उस शास्त्रार्थके मर्मको जाननेवाले विद्वानोंकरके निवेदन किये गये हैं । उन चार अंगों में से किसी भी एक अंगके नहीं विद्यमान होनेपर परिपूर्ण रूपसे प्रयोजनकी सिद्धि नहीं हो पाती है। देखिये, एक दूसरेको जीतने की इच्छा रखनेवाले दो वादी, प्रतिवादियोंके बिना तो विवाद कैसे भी नहीं प्रवर्तता है । और उन दोनों ही करके परस्परमें जीत हो जानेका विधान नहीं किया जा सकता है । अर्थात् दूल्हा दुलहिनके विना जैसे विवाह नहीं होता है, वैसे दो बादी, प्रतिवादियोंके विना विवाद नहीं हो पाता है । अपने अपने पक्षको बढिया बता रहे अभिमानी वादी, 1 प्रतिवादियोंकी वास्तविक रूपसे जयकी व्यवस्था करनेके लिये सभ्यपुरुषोंकी और सुप्रबन्धके लिये प्रभुकी आवश्यकता है 1
वादिनः स्पर्द्धया वृद्धिरभिमानप्रवृद्धितः ।
सिद्धे वाचाकलंकस्य महतो न्यायवेदिनः ॥
८॥
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• न्यायशास्त्रको परिपूर्ण जाननेवाले महान् विद्वान् अकलंक देवकी वाणी से जब यह सिद्ध हो चुका है कि वादी और प्रतिवादी पुरुषोंके प्रति स्पर्धा करके वृद्धिको प्राप्त होता हुआ अभिमान प्रकृष्टरूपसे बढ रहा है । इस कारण वे अपना पराजय और दूसरेका विजय माननेके लिये कथमपि तत्पर नहीं हैं, तब जयविधान और उपद्रवनिराकरणके लिये जिगीषुओंसे अतिरिक्त पुरुषों की भी आवश्यकता है ।
स्वप्रज्ञापरिपाकादिप्रयोजनेति केचन ।
तेषामपि विना मानादुद्वयोर्यदि स संमतः ॥ ९॥ तदा तत्र भवेद्यर्थः सत्प्राश्निकपरिग्रहः ।
ज्ञेयं प्रश्नवशान्नैव कथं तैरिति मन्यते ॥ १० ॥