Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
तं प्रति तावदृजुसूत्राश्रयात्प्रतिषेधकल्पना न सर्व द्रव्याद्यात्मकं पर्यापमात्रस्योपलब्धेरिति शब्दसमभिरूढैवंभूताश्रयात् प्रतिषेधकल्पना न सर्व द्रव्याद्यात्मकं, कालादिभेदेन, पर्यायभेदेन क्रियाभेदेन च भिन्नस्यार्थस्योपलब्धेः इति । प्रथमद्वितीयभंगौ पूर्ववदुत्तरे भंगा इति चतस्रः सप्तभंग्यः प्रतिपत्तव्याः ।
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तथा तीसरे व्यवहारनयसे विधिकी कल्पना करना " स्यात् सर्व द्रव्याद्यात्मकं " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् द्रव्यपर्याय आदिक स्वरूप हैं। क्योंकि अन्यथा यानी पदार्थोंके द्रव्य, पर्याय, आदि स्वरूप माने विना प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता, आदिके व्यवहार नहीं बन सकते हैं । बौद्धोंके अनुसार कोरी कल्पनासे उन प्रमाण, प्रमेयपनका व्यवहार माना जायगा तो स्वपक्षकी सिद्धि करादेने और परपक्षका निराकरण कर देनेकी यथार्थ रूपसे व्यवस्था नहीं बन सकेगी । इसके लिये वस्तुभूत द्रव्य या पर्यायों को मानते हुये प्रमाण, प्रमेय, व्यवहार साधना पडता है । द्रव्य या स्थूळपर्यायोंको माननेवाले उस व्यवहारीके प्रति तो अब ऋजुसूत्र नयका आश्रय करनेसे दूसरे भंग प्रतिषेधकी कल्पना करो " न सर्व द्रव्याद्यात्मकं " सभी पदार्थ कथंचित् द्रव्य या सहभावी पर्यायों स्वरूप ही नहीं हैं। क्योंकि हमें तो केवल वर्तमानकाल की सूक्ष्म, स्थूल पर्यायें ह्रीं दीख रही हैं । द्रव्य या भेद प्रभेदवान् चिरकालीन पर्यायें तो नहीं दीख रही हैं । अतः नास्तित्व भंग सिद्ध हो गया । इसी प्रकार शद्व समभिरूढ और एवंभूत नयोंके आश्रयसे प्रतिषेध की यों कल्पना करना कि " न सर्व द्रव्याद्यात्मकं " सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् द्रव्य, पर्याय आदि स्वरूप ही नहीं हैं । क्योंकि काल, कारक, आदिके मेद करके अथवा पर्यायवाची शब्दोंके वाच्य अर्थका भेद करके तथा भिन्न भिन्न क्रिया परिणतियोंके भेद करके भिन्न भिन्न अर्थोकी उपलब्धि हो रही है। कोरे द्रव्य और पर्याय ही नहीं दीख रहे हैं। इस प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा पहिला मंग और शेष चार नयोंकी अपेक्षा दूसरा दूसरा भंग बना कर पहिले दूसरे भंगों को बना देना । पश्चात् पूर्वक्रमके अनुसार क्रम अक्रम आदि द्वारा ( करके ) शेष उत्तरवर्ती पांच मंगोंको बना ना । इस प्रकार ये चार सप्तमंगियां समझ लेनी चाहिये ।
तथर्जुमूत्राश्रयाद्विधिकल्पना सर्व पर्यायमात्रं द्रव्यस्य क्वचिदव्यवस्थितैरिति तं प्रति शब्दाश्रयात्प्रतिषेधकल्पना । समभिरूदैवं भूताश्रयाश्च न सर्व पर्यायमात्रं काळादिभेदेन पर्यायभेदेन क्रियाभेदेन च भिन्नस्य पर्यायस्योपपत्तिमन्वादिति । द्वौ भंगौ क्रमाक्रमार्पितोभयनयास्तृतीयचतुर्थभंगा : त्रयोन्ये प्रथमद्वितीयतृतीया एव वक्तव्योत्तरा यथोक्तनययोगादवसेया इति तिस्रः सप्तभंग्यः ।
तिसी प्रकार ऋजुसूत्रनयका आश्रय लेनेसे विधिकी कल्पना करना " सर्व जगत् पर्यायमात्र - मस्ति ” सम्पूर्ण पदार्थ केवल पर्यायस्वरूप ही हैं । नित्यद्रव्यकी कहीं भी व्यवस्था नहीं है । इस प्रकार ऋजुसूत्रनयसे अस्तित्वकी कल्पना करनेवाले उस वादीके प्रति शब्दनयका आश्रय लेनेसे