Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जो सात सेवक रखे गये हैं, साथ हो रहे उनमें से किसीका भी कर्तव्य डूब मरनेसे बचाना नहीं है । अपने कर्तव्योंसे इतर कर्तव्योंका भी संकल्प कर अवसरको साध लेना इसने नहीं सीखा है । इस प्रकार विपरीतपने करके भी ६+2+४+३+२+१ = २१ इक्कीस सप्तमंगियां हुयीं । उत्तर वर्ती नयों करके पूर्ववर्त्ती नयोंके विषयका सर्वथा निषेध नहीं कर दिया गया है । जिससे कि इनको कुनयपनेका प्रसंग प्राप्त होय, किन्तु उपेक्षा भाव है । पूर्वकी सप्तभंगियों में भी तो उत्तरवर्ती नयों द्वारा प्रतिषेध कल्पना उपेक्षाभावोंके अनुसार ही की गयी थी । अन्य कोई उपाय नहीं । न्यारी न्यारी विवक्षाओं के अनुसार अन्य ढंगोंसे भी कई प्रकारकी सप्तभंगियां बनायीं जा सकती हैं। श्रेष्ठ वक्ताको पदार्थों के स्वभावोंकी भित्तिपर बहुत कुछ कह देनेका अधिकार प्राप्त है । " ज्यों केलाके पात पात पात में पात, त्यो पण्डितकी वातमें बात बातमें बात, ”। यदि इसमें वस्तु स्वभावोंके अनुसार इतना अंश प्रविष्ट (घटित ) हो जाय तो उक्त सिद्धान्त अक्षरशः सत्य है । " यावतो भंगास्तावन्तः प्रत्येकं स्वभावभेदाः " । यह विद्यामें आनन्द को माननेवाले आचार्योंका सब ओरसे भद्रोंको करने वाला अकळंक सिद्धान्त है ।
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तथोत्तरनय सप्तभंग्यः सर्वाः परस्परविरुद्धार्थयोर्द्वयोर्नवभेदप्रभेदयोरेकतरस्य स्वविपविधौ तत्प्रतिपक्षस्य नयस्यावळंबनेन तत्प्रतिषेधे मूलभंगद्वयकल्पनया यथोदितन्यायेन तदुत्तरभंगकल्पनया च प्रतिपर्यायमवगंतव्याः । पूर्वोक्तप्रमाणसप्तभंगीवत्तद्विचारच कर्तव्यः । प्रतिपादितनय सप्तभंगीष्वपि प्रतिभंगं स्यात्कारस्यैवकारस्य च प्रयोगसद्भावात् ।
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तिसी प्रकार मूळ नयोंके समान उत्तर नयोंकी भी सम्पूर्ण सप्तमंगियां समझ लेनी चाहिये । परस्पर में विरुद्ध हो रहे दो अर्थोंमेंसे किसी भी एककी अथवा नैगमनयके नौ भेद प्रभेदोंमेंसे किसी भी एककी अपने गृहीत विषय अनुार विधि करनेपर और उसके प्रतिपक्ष हो रहे नयका आश्रय लेनेसे उस धर्मका प्रतिषेध करनेपर दो मूलभंगों की कल्पना करके पूर्वमें कही गयी यथायोग्य न्यायपद्धति से और उन दोके उत्तरवर्ती पांच मंगोंकी कल्पना करके प्रत्येक पर्याय में सप्तभंगियां समझ केनी चाहिये | अर्थात्-नैगमके नौ भेदोंमें परस्पर अथवा संग्रह आदिके उत्तर मेदोंके अनुसार दो मूलमंगोंको बनाते हुये सैकडों सप्तभंगियां बनायी जा सकती हैं। प्रश्नके बशसे एक वस्तुम विधिनिषेधोंकी व्यस्त और समस्त रूपकरके कल्पना करना सप्तभंगी है । अर्थ पर्याय नैगमकी अपेक्षा विधिकी कल्पना कर और परसंग्रहका अवलम्ब लेकर निषेधकी कल्पना करते हुये दो मूढ भंगो करके सप्तभंगी बना लेना । पूर्व प्रकणोंमें कहीं गयीं प्रमाणसप्तभंगियोंके समान नयसप्तमंगियोंका विचार भी कर लेना चाहिये । अर्थात् - " प्रमाणनयैरधिगमः " सूत्रमें अडतालीसवीं वार्त्तिक से छप्पनवीं वार्तिकतक प्रमाणसप्तभंगीका जिस ढंगसे विचार किया गया है, वही नयसप्तभंगीमें लागू हो जाता है । प्रमाण सप्तभंगीमें अम्य धर्मोकी अपेक्षा