Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्चोकवार्तिके
छह सप्तभंगियां बना लेना । तथा सममिरूढसे विधिकी कल्पना करते हुये शब्द, ऋजुसूत्र, व्यवहार, संग्रह, और नैगम नयकी अपेक्षासे नास्तित्वको कल्पते हुये पांच सप्तभंगियां बना लेना । सममिरूढ नयकी मनीषा है कि सभी पदार्थ अपने अपने वाच्य पर्यायोंमें ही आरूढ हो रहे हैं । इसकी व्याप्य दृष्टिमें पूर्व पूर्व नयों के व्यापक विषय उसी प्रकार नहीं दीखते हैं, जैसे कि भूरे बछडेमें गौ पमेके व्यवहारको सीख कर बालक अन्य पीली काली गायें या बडे बडे बैलोंमें गौपनेका व्यवहार नहीं करना चाहता है । या कूपमंडूक ( कूएका मेंडका ) समुद्रको अपने क्षेत्र हो रहे कुएसे बढा हुआ मानने के लिये उद्युक्त नहीं है । अतः समभिरूढसे अस्तित्व और शब्द आदिकसे नास्तित्व ऐसे दो मूल मंगोंसे पांच सप्तभंगियां बन जाती हैं । तथा शब्द नयकी अपेक्षा अस्तित्व और ऋजुसूत्र, व्यवहार, संग्रह, नैगमोंकी अपेक्षा नास्तित्वको मानते हुये दो मूल भंगोंसे चार सप्तभंगियां बन जाती हैं । शद्वनयका उस अनुदार पुरुष या किसी अपेक्षा संतोषी मनुष्यके समान ऐसे हार्दिक भाव हैं कि थोडी कमाई अपने लिये और अधिक कमाई दूसरोंके लिये होती है । काल, कारक, आदिकसे भिन्न हो रहे पदार्थ ही इसको दीख रहे हैं। संकल्पित या संगृहीत अथवा सम्बे चौडे व्यवहारमें आनेवाले पदार्थ या सरळ पर्यायें मानों हैं ही नहीं । तथा ऋजुसूत्रकी अपेक्षा पहिले अस्तित्व भंगको कल्पना कर व्यवहार, संग्रह, नैगम नयोंसे दूसरे नास्तित्व भंगको गढते हुये दो मूळ भंगोंद्वारा तीन सप्तभंगियां बना लेना । ऋजुसूत्रनय वर्तमान पर्यायोंपर ही दृष्टि रखती है। व्यवहार करने योग्य या संग्रह प्रयोजक धर्म अथवा लम्बे चौडे संकल्प इनको नहीं छूती है । शश (खरगोश ) अपनी आंखों के ढक लेने पर अन्य पदार्थोके अस्तित्वको नहीं स्वीकार करता है । ऋजुसूत्रनयका उस स्वार्थी मनुष्यके समान यह संकुचित विचार है कि जगत्में मलाई या यशोवृद्धि के कार्योको करनेवाले पुरुष अपनी शारीरिक आर्थिक क्षतियोंको झेलते हुये प्राप्त लौकिक सुखोंसे भी वंचित रह जाते हैं । गोदकेको छोडकर पेटके की आशा लगाना मूर्खता है। तथा व्यवहारनयसे अस्तित्वकी कल्पना कर संग्रह, नैगम, नयोंसे प्रतिषेधकी कल्पना करते हुये दो मूलभंगोंद्वारा दो सप्तमंगियां बना लेना । व्यवहारमें आ रहे द्रव्य, पर्याय, आदिक ही पदार्थ हैं । सत् सामान्यसे संगृहीत हो रहे पदार्थ कहीं एकत्रित नहीं हो रहे हैं। अपना अपना लोटा छानो । नियत कार्यसे अधिक कार्यको करनेवालोंसे दोनों काम अधूरे रह जाते हैं । " जाको कारज ताको छाजे गदहा पीठ मोगरा वाजै " चोरोंके घुस आनेपर प्रभूको जगानेके लिये आलसी कुत्तेके कार्यको भी सम्हालनेवाला गधा विचारा मोगरोंसे पीटा गया। तथा संग्रहनयकी अपेक्षासे अस्तित्व मानते हुये नैगम की अपेक्षा नास्तित्वभंगकी कल्पना कर पूर्वोक्त पद्धति अनुसार एक सप्तमंगी बना लेनी चाहिये । संग्रहनय विचारता है कि अपना नियत ही कार्य करो। " कार्य हि साधयेद् धीमान् कार्यध्वंसो हि मूर्खता " "तेता पांव पसारिये जेती लम्बी सौड" । भले ही राजकुमार सरोवरमें डूब मरे किन्तु खबाने क्रीडा कराने, कपडे पहराने, गहना पहनाने, दूध पिलाने, घोडापर बैठाने, सुलानेके लिए