Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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तिसी प्रकार वे वैयाकरण आपः इस स्त्रीलिंग बहुवचन शब्द और " अम्भः इस नपुंसकलिंग एक वचन शब्द यहां संख्या मेद होनेपर एक जल नामक अर्थका आदरण कर बैठ गये हैं । उनके यहां संख्याका भेद अर्थका भेदक नहीं माना गया है, जैसे कि गुरु, साधन आदि में संख्याका भेद होनेपर अर्थ भेद नहीं है । अर्थात् - " कोष्ठेष्टिकापाषाणः गुरुः " मृत्तिकादण्डकुळाळाः घटसाधनं” अन्नप्राणाः गुरुत्रः सन्ति " यहां संख्या मेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं है । एक गुरु व्यक्तिको या राजाको बहुवचनसे कहा जाता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि वह वैयाकरणोंका कथन भी परीक्षाकी कसौटीपर श्रेष्ठ नहीं उतरता है। देखो, यों तो एक घट और अनेक तंतुयें यहां भी संख्या के भेदसे तिस प्रकार एकपन हो जानेका प्रसंग होगा । क्योंकि संख्या का भेद " आपः " और " जळ ' के समान घट और तंतुओंमें एकसा है। यहां वहां कोई विशेषता नहीं है । किन्तु एक घट और अनेक तंतुओंका एक अर्थ किसीने भी नहीं स्वीकार किया है | अतः शब्दनय संख्याका मेद होनेपर अर्थके मेदको व्यक्तरूपसे बता रहा है ।
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एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेपि पदार्थमभिन्नमादृताः “ प्रहासे मन्यवाचि युष्नन्मन्यतेरस्मदेकवच्च " इति वचनात् । तदपि न श्रेयः परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्प्रत्साधना भेदेप्येकार्थत्वप्रसंगात् ।
विदूषक, इधर आओ, तुम मनमें मान रहे होगे कि मैं उत्तम रथ द्वारा मेढे में जाऊंगा किन्तु तुम नहीं जाओगे, तुम्हारा पिता भी गया था ? इस प्रकार यहां साधनका भेद होनेपर भी वे व्यवहारी जन एक ही पदार्थको आदर सहित समझ चुके हैं। ऐसा व्याकरणमें सूत्र कहा है कि जहां बढिया हंसी करना समझा जाय वहां " मन्य " धातुके प्रकृतिभूत होनेपर दूसरी धातुओंके उत्तम पुरुषके बदले मध्यम पुरुष हो जाता है । और मन्यति धातुको उत्तम पुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थका वाचक है । किन्तु वह भी उनका कथन परीक्षा करनेपर अत्युत्तम नहीं घटित होता है । क्योंकि यों तो मैं पका रहा हूं, तू पचाता है, इत्यादिक स्थलोंमें भी अस्मद् और युष्मत् साधन के अभेद होनेपर भी एक अर्थपनेका प्रसंग होगा ।
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तथा “ संतिष्ठते अवतिष्ठत " इत्यत्रोपसर्गभेदेप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वमकत्वादिति । तदपि न श्रेयः । तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसंगात् । ततः काळादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसंगादिति शद्वनयः प्रकाशयति ।
तिसी प्रकार संस्थान करता है, अवस्थान करता है, इत्यादिक प्रयोगों में उपसर्गके भेद होनेपर भो अभिन्न अर्थको पकड बैठे हैं । वैयाकारणोंकी मनीषा है कि धातुके केवल अर्थका ही द्योतन करनेवाले उपसर्ग होते हैं । क्रिया अर्थके वाचक धातुऐं हैं, उसी अर्थका उपसर्ग द्योतन कर